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'प्रभु उपकार गुणे भर्या, मन अवगुण एक न समाय ।'
परंतु छद्मस्थ अवस्थामें अवगुण न हो यह कैसे हो सकता हैं ? कल एक साध्वीजीने यह प्रश्न पूछा था ।
मैं कहूंगा : प्रभु के साथ एकाकारता के समय निकली हुई ये पंक्तियां हैं। जिस क्षण चेतना परमात्ममयी होती हैं उस क्षण अवगुण रहते ही नहीं । दीपक जलता हो वहाँ तक अंधेरा कैसे आ सकता हैं ? प्रभुमें उपयोग हो वहाँ तक दुर्गुण कैसे आ सकते हैं ?
ये समाधि दशा के उद्गार हैं । समाधि दशामें से नीचे आने के बाद तो अवगुण आ सकते हैं, लेकिन अवगुण आने के बाद ऐसा साधक कभी उन्हें थपथपाता नहीं । हम तो कषायादि को थपथपा रहे हैं । ___ 'तुम न्यारे तब सब ही न्यारा, अंतर कुटुंब उदारा ।'
पू. उपा. यशोविजयजी के ये उद्गार प्रभु-विरह के सूचक
. * अन्नत्थ ऊससिएणं ।
उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जंभाई, डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तकी मूर्छा, सूक्ष्म अंग, सूक्ष्म श्लेष्म और सूक्ष्म दृष्टि का संचार आदि (अग्नि, पंचेन्द्रिय की आड, चोर, स्व-पर राष्ट्र का भय) सोलह आगार हैं । मतलब कि ऐसा होने से कायोत्सर्ग का भंग नहीं होता ।
कायोत्सर्ग-ध्यान का कितना प्रभाव ? मनोरमा के कायोत्सर्ग के प्रभाव से सुदर्शन सेठ के लिए सूली सिंहासन बन गई । चतुर्विध संघ के कायोत्सर्ग के प्रभावसे यक्षा साध्वीजी सीमंधर स्वामी के पास पहुंच सके । वाली के कायोत्सर्ग के प्रभाव से रावण का विमान अटक गया था ।
* आज अंतिम वाचना हैं । अंतिम वाचनामें गुरु-दक्षिणा के रूपमें क्या दोगे ? मैं मांगू ? मैं मात्र आज्ञापालन मांगता हूं। आप गुरु की आज्ञा को सदा स्वीकारने के लिए तत्पर रहो, इतनी ही अपेक्षा हैं । पू. कनकसूरिजी हलवदमें थे । एकेक साध्वीजी के ग्रुप को चातुर्मास के लिए कह रहे थे और सभी 'तहत्ति' करके स्वीकार करते थे ।
किहे कलापूर्णसूरि - ४000000000000000000000 ३२३)