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________________ पू. कनकसूरिजी म.सा. २३-११-२०००, गुरुवार मृगशीर्ष कृष्णा - १३ * तीर्थ की सेवा अवश्य आत्मानुभूति कराती हैं ।। ___ 'तीरथ सेवे ते लहे, आनंदघन अवतार ।' 'आनंदघन अवतार' का अर्थ है : आत्मानुभूति । उन्होंने (आनंदघनजी, पू. देवचंद्रजी इत्यादि) आत्मानुभूति प्राप्त की तो हम क्यों नहीं कर सकते ? पांच महाव्रतों का पालन, विहार, निर्दोष गोचरी, चार बार सज्झाय, सात बार चैत्यवंदन इत्यादि प्रतिदिन करने के पीछे एक ही उद्देश हैं : आत्मानुभूति । ज्ञानाभ्यास के पीछे यही उद्देश हैं : आत्मानुभूति । ज्ञान तो हमारा मुख्य साधन हैं । उसे कभी गौण बना नहीं सकते । इसके लिए दूसरा गौण कर सकते हैं, परंतु ज्ञान गौण नहीं कर सकते । जिनागम अमृत का पान, ज्ञान द्वारा ही मिल सकेगा । ज्ञानमें भी मख्यता किस को देनी? केवलज्ञान को कि श्रुतज्ञान को ? श्रुतज्ञान ही चार ज्ञानमें ज्यादा उपकारी हैं । क्योंकि उसका आदानप्रदान हो सकता हैं, अन्य ज्ञानका नहीं । इसलिए ही अन्य चार ज्ञान गूंगे कहे हैं । (३०८ Booooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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