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________________ मूल विधि तीसरे प्रहरमें विहार करने की हैं । वह ज्ञान की मुख्यता ही कहती हैं । पहली सूत्र-पोरसी, दूसरी अर्थ-पोरसी और तीसरी आहार-विहार नीहार पोरसी । * भगवतीमें एक बार ऐसा आया कि मुझे तो लगा : साक्षात् भगवानने ही मुझे यह दिया हैं । वहाँ आया : आत्मा के गुण अरूपी हैं । मुझे प्रतीत हुआ : भगवान के गुण भी अरूपी हैं। भगवान के क्षायिक हमारे क्षायोपशमिक हैं । किंतु उसके साथ एकाकार बनने से ये भी क्षायिक बन सकते हैं । कपड़ा, मकान, शरीर, शिष्य आदि 'मेरे' लगते हैं। लेकिन ज्ञानादि गुण 'मेरे' लगते हैं ? 'मेरे' न लगे वहाँ तक आप उसके पीछे दत्तचित्त नहीं बन सकते । शरीर के लिए, शरीर के साधनों के लिए 'मेरेपन' का भाव हैं, वैसा भाव आत्मा के लिए हैं ? हो तो मैं आपको नमन करूं । * 'शत्रुजी नदी नाहीने ।' कौन सी शत्रुजी नदीमें नहाना ? इस नदीमें तो पानी भी नहीं हैं । मैत्रीभावना ही शत्रुजी नदी हैं । इसमें स्नान करनेवाला ही शत्रुजयी बन सकता हैं । _ 'मुख बांधी मुख-कोश' यानि ? वचन गुप्ति करनी । गुस्सा आ जाये तब भी बोलना नहीं । नहीं बोलने से बहुत अनर्थों से बच जायेंगे । * वंदन, पूजन, सत्कार, सन्मान इत्यादि से हमारा संबंध भगवान के साथ जुड़ता हैं । भगवान पर अनुराग हो तो ही वंदनादि करने का मन होता हैं । वंदनादि करने से भगवान पर अनुराग प्रकट होता हैं, ऐसा भी कह सकते हैं । * 'अरिहंत चेइआणं' अद्भुत सूत्र हैं। इसके द्वारा विश्वभरमें जिनप्रतिमा आगे होते वंदनादि का फल काउस्सग्ग करनेवाले को मिलता हैं । स्तुति आदि करना वह सन्मान । मानसिक प्रीति भी सन्मान कहा जाता हैं, ऐसा अन्य आचार्य कहते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४00mmssssoooooooooo ३०९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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