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________________ इस द्रव्यस्तवमें 'द्रव्य' का अर्थ तुच्छ नहीं करना हैं, किंतु 'भाव' का कारण बने वह द्रव्य - ऐसा अर्थ करना हैं । * अभी अकाल की ऐसी भीषण परिस्थिति हैं कि पालीयादमें रूपयों से पानी बिक रहा हैं । परिस्थिति ऐसी भी हो सकती हैं कि एक रूपये का एक गिलास पानी मिले । ऐसे संयोगोंमें हमें पानी का उपयोग बहुत ही संभालकर करने जैसा हैं । हमारे बुझुर्ग तो कहते : पानी का घी की तरह उपयोग करना । * पुराने जमाने में श्रावक विदेशमें कमाने जाते तो वहाँ स्थायी नहीं रहते थे । एकाध सफर करके वापस स्वदेश आ जाते थे और संतोष से धर्म-ध्यानपूर्वक जिंदगी बिताते थे । वे जानते थे : यह जन्म काम-अर्थ के लिए नहीं हैं, धर्म के लिए ही हैं । * जो आत्मा पूजा से भावित बने, वह आगे जाते विरति से भावित बनेगी ही । मेरे लिए तो यह बात बिलकुल सत्य हैं । मुझे तो यह चारित्र भगवान की पूजा-भक्ति के प्रभाव से ही मिला हैं, ऐसा मैं मानता हूं। बचपनसे ही मैं मंदिरमें से दोपर एक-डेढ बजे आता । देरी से आने की आदत आज की नहीं हैं । उस समय भी मातापिता राह देखते थे । यद्यपि उनको कोई तकलीफ नहीं पड़ती थी । रोज की मेरी आदत से उनको आदत पड़ गई थी । * महापूजा इत्यादिमें भी विवेक और औचित्य रखने की जरूरत हैं, जिससे अन्य लोग अधर्म प्राप्त न करें । संपूर्ण मंदिर को भूषित करने वगैरहमें भी विवेक जरुरी हैं । निश्चय और व्यवहार भगवानने निश्चय और व्यवहार दो धर्मों का उपदेश दिया हैं । तत्त्वदृष्टि / स्वरूपदृष्टि निश्चय धर्म हैं और उस दृष्टि के अनुरूप भूमिका के योग्य प्रवृत्ति, आचारादि Team व्यवहार धर्म हैं । दोनों धर्म रथ के पहियों जैसे हैं। ७२ रथ चलता हैं तब दोनों पहिये साथ चलते हैं। (कहे कलापूर्णसूरि - ४000000000000000000 ३०७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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