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________________ ओपरेशन के बाद, भुज, वि.सं. २०४६ २२-११-२०००, बुधवार मृगशीर्ष कृष्णा - १२ * भगवानमें जितने गुण, जितनी शक्तियां प्रकट होती हैं वह कभी नष्ट नहीं होती हैं । यह बताने के लिए ही नौवी संपदा * 'उपयोगो लक्षणम्' उपयोग एक मात्र जीव का लक्षण हैं । यही दूसरे चारों अस्तिकाय से जीव को अलग करता हैं । यह लक्षण स्वरूप-दर्शक हैं । _ 'परस्परोपग्रहो-जीवानाम्' यह संबंध-दर्शक सूत्र हैं । दूसरों के लिए बाधकरूप संबंध बांधना अपराध हैं । दूसरों के लिए सहायकरूप संबंध बांधना प्रकृति को सहयोग रूप हैं । इस वस्तु को भूल जाने के कारण ही हम दूसरों को बाधक बनते आये हैं । जहाँ तक दूसरों को बाधा पहुंचायेंगे वहाँ तक हमें दूसरों की तरफ से बाधा आयेगी ही । जीवास्तिकाय की विचारणा हमें सर्व जीवों के साथ एक तंतु से बांधती हैं । दूसरों से हम स्वयं को अलग मानते हैं, अलग चौका जमाना चाहते हैं, अलग अस्तित्व खड़ा करना चाहते हैं, लेकिन यही हमारी बड़ी भूल हैं । यही मोह हैं । (३०४ namasoma 05500000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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