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जैसा हैं । देखो : 'चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि अर्हच्चैत्यानि ।' इसके रचयिता हरिभद्रसूरिजी आगम-पुरुष हैं । उनकी बात आप अन्यथा नहीं कर सकते ।
चैत्य शब्द कैसे बना हैं ? वह भी उन्होंने खोला हैं । 'चैत्य' का मतलब चित्त, उसका भाव अथवा कर्म वह चैत्य । 'वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ्च' पाणिनि ५-१-१२३ सूत्रसे ष्यञ् प्रत्यय लगने से चित्तका 'चैत्य' बना हैं । अर्थात् अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा चित्त की प्रशस्त समाधि उत्पन्न करनेवाली हैं ।
जो लोग 'चैत्य' का अर्थ ज्ञान, वृक्ष या साधु करते हैं, उनके पास न कोई आधार हैं । न कोई परंपरा हैं । मात्र अपने मतकी सिद्धि के लिए ही चैत्य के चित्र-विचित्र अर्थ उनके द्वारा किये गये हैं ।
आत्म-साधक अल्प होते हैं । लोकोत्तरमार्ग की साधना करनेवालोंमें भी मोक्ष की ही अभिलाषावाले अल्पसंख्यक होते हैं । तो फिर लौकिकमार्ग या जहाँ भौतिक सुख की अभिलाषा की मुख्यता हैं, वहाँ मोक्षार्थी अल्प ही होंगे न ? जैसे बड़ी बाजारोंमें रत्न के व्यापारी अल्पसंख्यक होते हैं वैसे आत्मसाधक की संख्या भी अल्प होती हैं ।।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४050wwwwwwwwwwwwww ३०३)