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ये पांचों बढते जाये तो ही कायोत्सर्ग, ध्यान तक पहुंचने की प्रक्रिया बन सकती हैं ।
* अच्छे मुहूर्त का भी प्रभाव होता हैं । यहाँ अच्छे मुहूर्तमें प्रवेश किया तो आप देख रहे हैं : वाचनामें कभी विघ्न नहीं आया, किंतु चातुर्मास परिवर्तन के बाद विघ्न आया । फिर आरीसा भुवनमें अंजनशलाका निपटा कर यहाँ शुभ-मुहूर्तमें (पुष्य नक्षत्रमें) प्रवेश किया तो विघ्न गये ।
* मैंने कभी यह नहीं सोचा : मैं बोलूंगा वह सुननेवाले को अच्छा लगेगा या नहीं ? मैं तो जिसकी जरुरत हो वही देता हूं, भले उसे अच्छा लगे या न लगे । सच्चा वैद्य तो वही कहा जाता हैं जो दर्दी को हितकारी हो वैसी ही दवा देता हैं, भले वह कडवी क्यों न हो ?
___ 'अरिहंत चेइआणं ।' यहाँ हरिभद्रसूरिजी लिखते हैं :
'सहृदयनटवद् भावपूर्णचेष्टः ।' सहृदयी अभिनेता की तरह भावपूर्वक आपकी चेष्टा होनी चाहिए ।
बहुत नट ऐसे सहृदयी होते हैं कि पात्र का अभिनय इतना जीवंत करते हैं कि देखनेवाले तो फिदा हो जाते हैं, लेकिन वे स्वयं भी भावविभोर बन जाते हैं । इस तरह ही भरत का नाटक करनेवाले वे नट केवलज्ञानी बने होंगे न ? वह बहुरूपी कितना सहृदयी होगा कि साधु का वेश स्वीकारने के बाद छोड़ा नहीं ।
ऐसे भावपूर्वक हमें ये सूत्र बोलने हैं । कपटी नटकी तरह दिखावा नहीं करना हैं, लेकिन निष्कपट भावपूर्वक चेष्टा करनी हैं ।
मुंबई - लालबागमें लाल फूलों से रोज भगवान की भावपूर्वक पूजा करते भक्त को एक दिन विजयरामचंद्रसूरिजीने कहा : आप प्रवचनमें कभी नहीं आते ?
उसने कहा : 'मुझे मंगल पीडा देता हैं, इसलिए मैं लाल फूलों से पूजा करता हूं। मुझे प्रवचन के साथ क्या लेना-देना ?'
धर्म-क्रिया पीछे का हमारा ऐसा मलिन उद्देश होगा तो आत्मशुद्धि नहीं होगी । यह भक्ति कपटी नट जैसी गिनी जायेगी ।
चैत्य का अर्थ प्रतिमा किस प्रकार किया हैं ? वह समझने
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