SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्य से ज्यादा लिये नहीं हैं । स्वाध्यायमें लीनता बहुत ही थी । योग-क्षेममें अप्रमत्तता प्रतिपल देखने मिलती । उत्कृष्ट संयमवृत्ति तो नजर के सामने ही दिखती । कोई शिष्य आसन रखकर जाये तो ज्यादा आसन निकाल देते । १५ दिन से पहले काप नहीं निकालने देते । नीचे देखकर चलना, एकासन करना, स्थंडिल दोपहर को ही जाना, वाडेमें नहीं । इत्यादि गुण नेत्रदीपक थे । * ज्ञानी कौन कहा जाता हैं ? कितनी डीग्री प्राप्त करे तो ज्ञानी कहा जाये ? ९ पूर्व तक पढा हुआ भी अज्ञानी हो सकता आत्म-स्वरूप की तमन्ना न हो तो वह अज्ञानी ही होगा । किसी जिज्ञासुने गुरु को पूछा : चार गतिमें भयंकर दुःख हैं । साधनामें भी दुःख हैं । दूसरा कोई रास्ता हैं ? गुरुने कहा : गुणानुवाद करना, गुणी को वंदन करना - वह तीसरा मार्ग हैं । आज हम इसलिए ही इकट्ठे हुए हैं । अनुमोदना का प्रसंग खड़ा करके पू.आ.भ. जगवल्लभसूरिजीने बड़ा काम किया हैं । तीर्थयात्रा द्वारा संयमयात्रा पाकर भव-यात्रा का अंत करें, यही कामना । ___ नवकार के जितने अक्षर हैं उतने साल (६८) उन्होंने संयम पाला था । पूज्य धुरंधरविजयजी : पूज्यश्री को सर्वप्रथम मैंने इसी भूमिमें सं. २००६में देखे । चातुर्मास निवृत्ति निवासमें था । पू.पं. भद्रंकर वि.म. का कोटावाले की धर्मशालामें था । पू. जिनप्रभ वि.म. की थोड़े समय पूर्व ही दीक्षा हुई थी। प्रथम ही दर्शनमें हम एक दूसरे को जच गये । मैं पूज्यश्री की गोदमें बैठ गया । ___ 'तुझे दीक्षा लेनी हैं ?' इस प्रश्न के जवाबमें मैंने कहा : 'दीक्षा लेनी हैं ।' उन्होंने कहा : 'तो तेरी दीक्षा नक्की ।' उस समय बालदीक्षामें खतरा था । नररत्न वि. की दीक्षा के बाद बालदीक्षा नहीं हुई थी । मुमुक्षुमंडलमें १४ वर्ष के आसपास के किशोर थे । (२९४ 0ommonomooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy