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________________ वृक्ष स्वयं कष्ट झेलकर फल दूसरों को देते हैं । नदी अपना पानी दूसरों को देती हैं । हमारे पू. प्रेमसूरिजी भी ऐसे ही थे । पू. प्रेमसूरिजी श्रीफल की तरह उपर से कठोर थे, लेकिन भीतर से कोमल थे । आज के दिन संकल्प करना : जब तक चारित्र नहीं लूंगा, तब तक आयंबिल करूंगा या दूसरा कुछ भी त्याग करूंगा । पू.पं.श्री वज्रसेनविजयजी : वि.सं. २००८ से मैं पूज्यश्री को बराबर पहचानता हूं । तब निवृत्ति निवासमें चातुर्मास था । मैं (संसारीपनेमें) मुमुक्षु मंडल के सभ्यरूपमें पुरबाईमें (वि.सं. २००६) था । पूज्यश्री तब आयंबिल खातेमें थे । पूज्यश्री के नाम के अनुसार गुण थे । बहुतों के नाम आनंदीलाल होता हैं पर आनंद की बुंद भी नहीं होती, लेकिन ये तो प्रेम के महासागर थे ।। १५-१७ मुमुक्षुओंमें मैं भी था । दो जन ८-८ वर्ष के थे । १७ वर्ष से कोई बड़ा नहीं था । उसमें से ९०%ने दीक्षा ली । 'प्रथम मुहूर्तमें दीक्षा ले उसे समेतशिखर की यात्रा का लाभ मिलेगा ।' ऐसा सुनकर पूज्यश्री को मैंने कहा था : 'दीक्षा मुझे लेनी हैं, लेकिन प्रथम मुहूर्तमें नहीं । मुझे समेतशिखर की यात्रा करनी हैं।' पर पूज्यश्री टस के मस न हुए । _ 'तेरे संयम के विकास के लिए तू पू. महाभद्र वि. को छोड़ना मत ।' ऐसा मुझे कहा था । सं. २०१९में राधनपुरमें चेचक (शीतला) निकले थे तब जावाल से राधनपुर के संघ पर पूज्यश्री का पत्र आता था : इस बालमुनि को बराबर संभालें । पूज्यश्री वचनसिद्ध थे । '१ली बुक महिनेमें हो जायेगी ।' कहते तो हो गयी । ऐसे प्रेमी महात्मा का सांनिध्य २० वर्ष तक मिला, देखने मिले, वह मेरा अहोभाग्य हैं । पू. कीर्तिसेनसूरिजी : हम उनके हाथ से दीक्षित बने, १२ वर्ष साथमें रहे। पिंडवाड़ामें ३ चातुर्मास साथमें किये । उनका वर्णन वचनातीत हैं । उनका ब्रह्मचर्य निर्मल था । दैनिक एकासणेमें दो से तीन कहे कलापूर्णसूरि - ४00 000000000000 २९३)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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