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उस समय राधनपुरमें पू. दानसूरिजी की निश्रामें उपधान थे । पू. दानसूरिजी को चैत्र शुक्ल १४ का दिन आचार्य पद के लिए सुंदर लगा । कमलशीभाई (राधनपुर के उत्तम श्रावक) को पू. दानसूरिजीने यह बात की। लेकिन प्रेमविजयजी को समझाना कैसे ? वह समस्या थी । कमलशीभाईने यह काम हाथमें लिया । पाटण गये : 'गुरु म. आपको याद करते हैं।'
तबीयत बराबर नहीं होगी-ऐसा समझकर तुरंत ही विहार कर राधनपुर पहुंच गये ।
गुरु को स्वस्थ देखकर विचारमें पड़ गये : क्या कारण होगा ? उसके बाद गुरुने आदेश किया : तुम्हें आचार्य पदवी लेनी हैं । ये शब्द सुनते ही हम जैसों को आनंद होता हैं, पर पूज्यश्री का मुंह म्लान बन गया । अश्रुधारा बहने लगी ।
जो ऐसे मानता हो कि मैं आचार्य पदवी के लिये अयोग्य हूं, वही उस पद के लिये योग्य समझें ।
'तीर्थंकर समान पद का वहन करने की योग्यता मुझमें नहीं हैं ।' पूज्यश्रीने कहा ।। उस समय पू. दानसूरिजीने 'वीटो' लगा कर पद दिया ।
'आज्ञा गुरूणामविचारणीया ।' ऐसी निःस्पृहता हममें भी प्रकट हो ऐसी भावना के साथ... पू. दिव्यरत्नविजयजी (वल्लभसूरिजीके) :
आज से १०० वर्ष पूर्व इस भूमि पर जो प्रसंग बना वह हम भले ही नहीं देख सके, लेकिन उनका महोत्सव मनाने का सौभाग्य मिला, वह भी कम नहीं हैं ।
अगर कोई व्यक्ति बहरा-गूंगा हो उसे मिश्री-गुड़ खीलाया जाय तो उसकी प्रशंसा वह कैसे कर सकेगा? वह मन ही मन गुनगुनायेगा, लेकिन बोल नहीं सकेगा ।
हमारी भी यही स्थिति हैं । उनके संयम के समय हममें से कोई उपस्थित नहीं होंगे ।
स्वार्थी संसारमें सच्चे साथी केवल गुरु हैं । गुरु के पास ४८ मिनिट का सामायिक भी अगर इतना आनंद देता हैं तो आजीवन सामायिक कितना आनंद देता होगा ? (२९२ 60saas
o os कहे कलापूर्णसूरि - ४)