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पू. सिंहसेनसूरिजी :
जयवंत जिनशासन को यहाँ तक लानेवाले ऐसे महापुरुष हैं । भगवानने तो शासन स्वनिर्वाण तक चलाया । किंतु उसके बाद उसे जयवंत रखनेवाले ऐसे महापुरुष थे ।
मैंने तो पुज्यश्री को देखे नहीं हैं। एक प्रसंग कहता हूं, जिससे उनकी निखालसता, वात्सल्य, संगठन- प्रेम आदि का पता चले ।
उस्मानपुरा जिनालय की प्रतिष्ठा पू. उदयसूरिजी की निश्रामें होने पर भी पू. प्रेमसूरिजी को विनंति कराकर दोनोंने साथमें मिलकर प्रतिष्ठा कराई थी ।
ऐसे महापुरुषों की आज जरुरत हैं ।
पूज्य श्री की दीक्षा का आज मंगलदिन हैं । इस क्षेत्र के प्रभाव के कारण ऐसा चैतन्य प्रकटे कि वह साधक उत्तरोत्तर आगे बढता रहे ।
पू. महोदयसागरजी :
यहाँ बैठे हुए हमारेमें से बहुतोंने पूज्यश्री के दर्शन नहीं किये होंगे । मैंने भी नहीं किये । लेकिन हमारे पू. गुरुदेव के मुख से आदरपूर्वक नाम बहुतबार सुना हैं ।
तपागच्छ के बड़े साधु समुदायमें पू. प्रेमसूरिजी का बड़ा हिस्सा हैं । माता से भी अधिक वात्सल्यपूर्वक उन्होंने साधुओं को तैयार किये हैं । दीक्षा के बाद भी उन्होंने अद्भुत तालीम दी हैं । हमारे गुरुदेव पू. गुणसागरसूरिजीने आचार्य पदवी के प्रसंग पर घोषणा की थी : 'सब आचार्य भगवंत एक होते हो तो मैं मेरे गच्छ की सामाचारी के लिए आग्रह नहीं रखूंगा ।'
पू. प्रेमसूरिजी के कानमें यह बात आयी । उन्होंने इस भावना की अनुमोदना की ।
पू. प्रेमसूरिजी के अनेकानेक प्रसंगोंमें से एक प्रसंग कहता हूं : आचार्य पदवी के लिए योग्य होने पर भी उनमें अद्भुत निःस्पृहता थी । एक बार वे वयोवृद्ध मुनिश्री जिनविजयजी की वैयावच्च करने के लिए पाटणमें रहे थे । पहले से ही वैयावच्च का रस उनमें जोरदार था । पैर दबाने से लेकर मात्रु परठवने तक का कार्य भी आनंदपूर्वक करते । पर- समुदाय के महात्माओं की भी सेवा करते ।
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WOODOO २९१
कहे कलापूर्णसूरि ४
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