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________________ पिंडवाड़ा धन्य बन गया हैं, उनके जन्मसे । सद्गुरु के रूपमें बहुत उच्च व्यक्ति थे । पू. प्रेमसूरिजी के पास, मैंने देखा हैं : कोई साधक उनके पास आते ही वे समझ जाते : १०-१५ जन्म से यह साधक किस धारामें बहता आया हैं ? स्वाध्याय, वैयावच्च, भक्ति, जो धारा हो उसमें बिठा देते । उनका तीसरा नेत्र जागृत था । वे इसके द्वारा साधक को पहचान लेते और उसकी दिशामें दौड़ाते । यह जन्म साधनामें दौड़ने के लिए ही मिला हैं । इस तरह सैंकड़ों साधकों को तैयार किये हैं । परंपरा से तो लाखों साधकों को तैयार किये हैं । आज के युग के बहुत बड़े भक्तियोगाचार्य, जिनके लिए 'ऋषि' शब्द के प्रयोग का मन होता हैं, वैसे पू. आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म. हमारे बीच बिराजमान हैं। पू. प्रेमसूरिजी, पू. भद्रंकरविजयजी म. भले गये, लेकिन पू. कलापूर्णसूरिजी जैसे विद्यमान हैं, वह हमारा सद्भाग्य हैं । ऐसे ऋषियों की ओरा रेन्ज बहुत लंबी होती हैं। सद्गुरु के प्रसाद के बिना साधना किसी भी तरह उठाई नहीं जा सकती । अरणिक मुनि की साधना गुरु की प्रसादी से ही हुई । नहीं तो कोमल कायामें धगधगती शिलामें संथारा करने की शक्ति कहाँ से आये ? तीर्थंकर की कृपा हम पर नित्य बरसती ही रही हैं । लेकिन कृपा बरसती हो तब हमें स्वयं को खोलने की जरुरत हैं । ९९% कृपा, मात्र १% प्रयत्न ही हमारा । यह प्रयत्न भी कृपा को खोलने के लिए ही हैं। __ पू. प्रेमसूरिजी को १०० साल हुए । बहुत बड़ा अंतर नहीं हैं । मैं तो कहूंगा : २५०० वर्ष भी बहुत बड़ा अंतर नहीं हैं। आज भी वाइब्रेशन ग्रहण कर सकते हैं । _इनकी साधना-धारा को ग्रहण करने के लिए आज के दिन . कटिबद्ध बनकर प्रार्थना करते हैं : एकाध अंश हमें मिलो । (२९० 00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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