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________________ हम सब इनके जैसे आराधक बनें यही शुभेच्छा । पू. यशोविजयसूरिजी : * स्व नाम धन्य महायोगिवर्य पू प्रेमसूरिजी म. हमारे युग के अनन्यतम साधक थे । इनकी साधना को शब्दोंमें बांध नहीं सकता हूं । मात्र वंदन करके शिल्पी के रूपमें वर्णन करूंगा । एक शिल्पी को किसीने पूछा : अजोड़ शिल्प कैसे बनाया ? शिल्पीने कहा : 'शिल्प तो अंदर था ही । मात्र बिनजरुरी भाग मैंने निकाल दिया । पू. प्रेमसूरिजी, पास आये हुए किसी भी साधक का हीर परखकर उसका बिनजरुरी भाग निकालकर सशक्त शिल्प तैयार करते । शिल्पी के रूपमें वे अजोड़ थे । उन्होंने जैसे शिष्यों को दिये हैं, वैसे किसीने नहीं दिये । बालमुनि को चोकलेट का प्रलोभन भी देते । पू. जयघोषसूरिजी को बालमुनि के रूपमें ही अच्छी तरह संभाले थे । ९-९ मुनिओं को शतावधानी बनाने के बाद तुरंत ही कह दिया : सार्वजनिक रूप से यह प्रयोग बंद करो । मुनिओं को प्रसिद्धि के नहीं, सिद्धि के शिखर पर वे चढाना चाहते थे । आपको पता नहीं होगा : गुरु की कठोरतामें कोमलता के दर्शन शिष्य कैसे करता हैं " दयानंद के गुरु थे : वीरजानंद । बहुत ही क्रोधी । गुरु के क्रोध को पुण्य प्रकोप कहते हैं । दयानंद की आश्रम साफ करने की बारी थी । वीरजानंदने देखा : एक कमरेमें थोड़ा कचरा पड़ा हैं । गुरुने दयानंद को पीठमें झाडू से धो डाला । .१६ दिन तक घाव बताकर दयानंद कहते : देखा ? यह गुरु की प्रसादी हैं । चंडरुद्राचार्य जैसे गुरु न मिले, उसका कितना दर्द हमें हैं ? चंदना जैसे गुरु न मिले, उसका कितना दर्द हमें हैं ? पू. प्रेमसूरिजी अनन्य शिल्पी थे - साधना जगत के । कर्मकांडी, ध्यानी, योगी, मांत्रिक, प्रवचनकार इत्यादि उन्होंने दिये हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४00amoooooooo00000000 २८९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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