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ऐसे चारित्र को स्व-जीवनमें उतारना कठिन हैं तो अन्योंमें उतारना तो अति-कठिन हैं। यह कठिन काम पू. प्रेमसूरिजीने स्वजीवनमें कर दिखाया हैं ।
भगवान और भगवान के शासन के प्रति उन्हें गाढ प्रेम था ।
जो पू. रामचंद्रसूरिजी के जैन प्रवचन पढकर मुझे वैराग्य हुआ, उन पू. रामचंद्रसूरिजी को तैयार करनेवाले पू. प्रेमसूरिजी थे ।
__पाट पर बैठकर भले प्रेमसूरिजी बोलते नहीं थे, किंतु नीचे तो बड़े बड़े को भी दीक्षा दे देते, भले कोलेज पढकर आया हो या चाहे वहाँ पढकर आया हो ।
वि.सं. २०१४में चडवाल संघ के समय पू. प्रेमसूरिजी के पहलीबार दर्शन हुए । तब सब पदस्थ साथ थे । हम भी संघमें जुड़ गये । उसके बाद वह चातुर्मास सुरेन्द्रनगरमें साथमें किया ।
एतदर्थ पू. कनकसूरिजीने सप्रेम अनुमति दी । पांच ठाणा हम अलग समुदाय के होने पर भी किसी को पता भी न चले कि अलग समुदाय होगा ।
उस समय पू. प्रेमसूरिजीने प्रेम के पाठ सीखाये, प्रेम की गंगामें स्नान कराया, पू. प्रेमसूरिजी के बाद पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. को पकड़े । तीन चातुर्मास उनके साथ रहे ।
शिष्यों को तैयार करने की उनकी कला सीखने जैसी हैं । शिष्यों को तैयार करने वे खुद बाधा लेते : तू ४५ आगम न पढे वहाँ तक मुझे दूध का त्याग !
वह शिष्य उनके वात्सल्य से भीग न जाये तो ही आश्चर्य !
बोलने की अपेक्षा जीवन अधिक बोधप्रद बनता हैं । यह उनके जीवन से जानने मिलता हैं । आप बोलेंगे तो एकाध घण्टा ही, मगर आपका जीवन निर्मल होगा तो २४ घण्टे अन्यों को प्रेरणा मिलती ही रहेगी।
निर्मल जीवन से वे हमेशा प्रेरणा देते ही रहते थे ।
अतः एव मुनि अवस्थामें रहा हुआ मुनि व्याख्यानादि न दे तो भी जगत का योग-क्षेम करता रहता हैं ।
ऐसे मुनि के प्रभाव से ही जंबूद्वीप से दुगुना बड़ा होने पर भी लवण समुद्र उसे डूबाता नहीं हैं । (२८८ 0 comww w .sam कहे कलापूर्णसूरि - ४)