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'पोथी पढ-पढ जग मूआ, पंडित भया न कोय; ढाई अक्षर प्रेम का, पढे सो पंडित होय ।'
- कबीर पू. प्रेमसूरि म.में सचमुच ही प्रेम का प्रवाह उमटता था । कठोर लोगों के हृदयमें भी वैराग्य का दीपक प्रकटाने का भगीरथ काम उन्होंने किया था ।
__ अभी गणि श्री मुनिचंद्रविजयजीने कहा उसी तरह चार शासनस्तंभ हो गये ।
_पू. सागरजी महाराजने अकेले ने ही यह भगीरथ कार्य किया । खंडित प्रतोंमें भी प्रकांड प्रज्ञा से टूटे हुए आगम पाठ जोड़े, वे असल प्रतमें भी बादमें वैसे ही मिले ।
संयम के उद्धारक, पू. प्रेमसूरिजीने बहुत शासन-सेवा की हैं । जहाँ गये वहाँ चारित्र की प्रभावना की हैं । _ 'गमतानो करीए गुलाल' (जो अच्छा लगे उसे बांटे), खुद को अच्छा लगता चारित्र अनेकों को दिया । इनके गुण हममें भी आये, ऐसी मंगलकामना ।
पूज्य कलापूर्णसूरिजी :
चातुर्मास के प्रारंभ से अब तक एक होकर हम रहे हैं । और आगे भी रहेंगे । ऐसी अच्छी परंपरा चले तो अच्छा ही हैं न ? इसमें शासन की शोभा ही हैं न ?
'हमारे श्रमण एक ही पाट पर हैं ।' ऐसा जानकर श्रावकवर्ग को कितना आनंद होगा ?
पू. प्रेमसूरिजी की संयम शताब्दी हैं । दीक्षा ही सच्चा जन्म हैं, आध्यात्मिक जन्म हैं ।
घर के मुख्य व्यक्ति चले जाये, वापस न आये तो मन कैसा व्याकुल रहता हैं ? हमारी आत्मा आज खुद के घर से बाहर चली गयी हैं । अंदर हालत कैसी हुई होगी ?
चेतना-शक्ति आज बाहर भटक रही हैं । चारित्र इसका नाम जो चेतना की शक्ति को अंदर ले जाये ।
चारित्र मानव को ही मिलता हैं । पांचों परमेष्ठीमें एक भी परमेष्ठी चारित्र-रहित नहीं हैं। इसलिए ही पांचों परमेष्ठी मानव के बिना बन नहीं सकते । (कहे कलापूर्णसूरि - ४ wooooooooooooooomnon २८७)