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वि.सं. १९९८ (या १९९६ ?) में पूज्यश्री का निपाणीमें चातुर्मास था । व्याख्यान के बाद प्रभावनामें नारियल की प्रभावना होती थी ।
एक अजैन (लड़का ) बार बार नारियल लेने आता था । ट्रस्टीओं की चकोर नजर से वह छुपा न रहा । ट्रस्टीओं ने उस लड़के को पकड़ा, धमकाया और १५-२० प्रभावना के नारियल निकलवाये ।
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पूज्यश्री यह दृश्य देख रहे थे । उन्होंने उस जैनेतर लड़के को बुलाया । धमकाते ट्रस्टीओं को अटकाये । १५-२० नारियल लड़के को वापस दिलाये और कहा : रोज तू मेरे पास आना । शिवप्पा नामका यह लिंगायती ब्राह्मण - शिशु रोज पूज्य श्री के पास आने लगा और थोड़े समयमें पांच प्रतिक्रमण सीख गया । पूज्य श्री के अपार वात्सल्य से मुग्ध बना वह लड़का दीक्षा लेने भी तैयार हो गया । वह बालक आगे जाकर पूज्य आचार्यश्री विजय गुणानंदसूरिजी महाराज बना, जिनके पास पू. चंद्रशेखर वि., पू. रत्नसुंदरसूरिजी जैसे अनेक प्रभावक पढ चूके हैं ।
ऐसे थे रत्नपरीक्षक पूज्य प्रेमसूरिजी, जिन्होंने अपने कुनेह और करुणा से चारों तरफ से अनेक प्रतिभाओं को आकर्षित की थी । अभी पू. सागरजी म. के गुणानुवाद के प्रसंग पर पू. धुरंधरविजयजी महाराजने पं. मफतलाल का हवाला देकर कहा था कि जैनशासन के अर्वाचीन चार स्तंभ हो गये :
(१) जिन-मंदिरों के उद्धारक पू. नेमिसूरिजी । (२) श्रावकों के उद्धारक पू. वल्लभसूरिजी । (३) आगमों के उद्धारक पू. सागरजी म. । (४) संयमीओं के उद्धारक पू. इस कालमें विशिष्ट प्रकार के बहुत ही उपकार किया हैं ।
प्रेमसूरिजी, पू. रामचंद्रसूरिजी । संयमी तैयार करके पूज्यश्रीने
पूज्य श्री के चरणोंमें अगणित वंदन ।
पू. नवरत्नसागरसूरिजी :
'प्रेम' नाम ढाई अक्षर का हैं । प्रेम को जान ले वह पंडित
कहा जाता हैं ।
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5 कहे कलापूर्णसूरि ४