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________________ अंत न होने के कारण अनंत हैं । आबाधा-रहित होने के कारण अव्याबाध हैं । वहाँ जाने के बाद वापस आना नहीं हैं इसलिए अपुनरावृत्ति हैं । पू.आ.श्री विजय कलाप्रभसूरिजी : श्री हरिभद्रसूरिजी म., मुनिचंद्रसूरिजी - दोनों महापुरुषोंने प्रभुस्तवनारूप ललित-विस्तरा, नामक टीका और पंजिका लिखी हैं । हमने चार-चार महिने तक इस ग्रंथ पर जो कुछ सुना हैं । पू. गुरुदेवने बहुत ही सुंदर शैली से भगवान अच्छे लग जाय इस तरह हमें समझाया । इस तरह हमने किसी समय भगवान को पहचानने का प्रयत्न नहीं किया हैं । ब्राह्मण कुलमें जन्म लेने पर भी हरिभद्र किस तरह भगवान को पहचान सके ? एक क्षण भी भगवत्-स्मरण बिना की नहीं होगी। तो ही ऐसा लिख सके होंगे । पूज्यश्री का जीवन भी भगवन्मय ही हैं । अतः एव वे इस पर बोलने के अधिकारी हैं । भगवान पर प्रेम होने के कारण ही नादुरस्त तबीयत होने पर भी वाचना, जहां तक शक्य हुआ, बंद नहीं रखी हैं । हम ना कहें तो भी बंद नहीं रखी । पूज्यश्री जैसे तो हम बन नहीं सकते, किंतु इनके चरणोंमें नतमस्तक प्रार्थना करते हैं : आप भगवान को जिस तरह पहचानते हैं, इस पदार्थ को ग्रहण करने की हमें निर्मल प्रज्ञा मिले, यही आपके पास तमन्ना हैं । पूज्यश्री का आभार मानें उतना कम हैं । ७७ वर्ष की उम्रमें भी पूज्यश्री अप्रमत्त हैं । थोड़ा बुखार या सर्दी हो जाय तो हमारे जैसे व्याख्यान बंद कर देते हैं, पर पूज्यश्री कभी बंद नहीं रखते । इसमें पूज्यश्री स्वयं का परिश्रम नहीं देखते । अतः अब यात्राएं शुरु होने पर भी वाचना, समय आने पर चालू रहेगी। पूज्यश्री : भगवान की आज्ञा विरुद्ध कुछ बोला या आपको कटु लगे वैसा बोला हो तो हार्दिक मिच्छामि दुक्कडं । सिद्धगिरिमें हैं वहां तक लोगों की भीड़ भी रहेगी । वासक्षेप का सब आग्रह रखते हैं, लेकिन वासक्षेप की रजकण उडते खांसी या ऐसा कुछ होगा तो यह सब (वाचना आदि की) प्रवृत्ति भी बंद हो जायेगी, उस पर विचार करें । (कहे कलापूर्णसूरि - ४0omoooooooooooooooo २८१)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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