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________________ REAwasnasanaTalatalASA अंजनशलाका प्रतिष्ठा, भीमासर - कच्छ, वि.सं. २०४६ १२-११-२०००, रविवार मृग. व. - १ यः एव वीतरागः सः, देवो निश्चीयतां ततः । भविनां भवदम्भोलिः स्वतुल्य-पदवी-प्रदः ॥ * जिन-जापक, तीर्ण-तारक, बुद्ध-बोधक और मुक्तमोचक भगवान हैं, ललित-विस्तरामें यह हमने देखा । अतः भगवान 'स्वतुल्यपदवीप्रद' हैं, यह निश्चित हुआ। यह जानते कितना आनंद होता हैं ? दीन-दुःखी की सेवा करो तो क्या मिलेगा ? जो खुद का पेट भर नहीं सकता वह आपका पेट क्या भर सकेगा ? जो स्वयं राग-द्वेष से ग्रस्त हैं वे आपका क्या भला करेंगे ? जिस भगवान के पास ऐसी उत्कृष्ट सिद्धियां मिल सकती हो, फिर भी वह प्राप्त करने की इच्छा न हो वह कितना कमभाग्य होगा ? हम तो हमारी वृत्तिओं को जानते हैं न ? सुबह से शाम तक हमारी वृत्तियां कैसी ? उसका पता हमें नहीं चलता ? भगवान और हम स्वयं-दो ही सब जान सकते हैं । * भगवान मोक्ष देने के लिए तैयार हैं । आपको मात्र याचना करने की जरूरत हैं । (२८२ 6 00mo50 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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