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* क्रोध की तरह विषय की लगनी भी आग हैं । क्रोध दिखता हैं, विषय की आग दिखती नहीं इतना अंतर हैं । विषय . की आग बिजली के शोर्ट जैसी हैं । दिखती नहीं लेकिन अंदर से जला देती हैं । .
भगवान के गुणों के ध्यान से ही विषय की आग शांत होती हैं। 'विषय-लगन की अगनि बुझावत, तुम गुण अनुभव धारा; भई मगनता तुम गुण रसकी, कुण कंचन कुण दारा ?'
___ - पू. उपा. यशोविजयजी * भगवान स्वयं कहते हैं : मत्तः अन्ये मदर्थाश्च गुणाः।
गुण मुझसे अन्य हैं और मुझसे अनन्य भी हैं । मैं ही हूं साध्य जिनका ऐसे गुण हैं । गुणवृत्ति से अलग एकान्तिक कोई मेरी प्रवृत्ति नहीं हैं ।
गुण, लक्षण आदि से भिन्न हैं ।
उदाः गुण का लक्षण अलग हैं । मेरा (आत्मा का) लक्षण अलग हैं ।
संख्याः द्रव्य एक हैं । गुण अनेक हैं । फलभेद : द्रव्य का कार्य अलग हैं । गुणों का कार्य अलग हैं । नाम : द्रव्य का नाम अलग हैं । गुणों के नाम अलग हैं।
इन सब दृष्टि से गुण मुझसे भिन्न हैं । किंतु दूसरी दृष्टि से गुण और मैं एक भी हैं ।
क्योंकि गुणों का भी साध्य आखिर मैं हूं । गुण, गुणी के बिना कहीं रह नहीं सकते ।
(३२) सिव - मयल - मरुअ - मणंत - मक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति - सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं ।
भगवान शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, व्याबाधा और पुनरागमन रहित सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त हुए हैं ।
व्यवहार से भगवान का स्थान सिद्धशिला हैं, किंतु निश्चय से स्वस्वरूप ही हैं ।
वह (सिद्धिगति) सर्व उपद्रव से रहित होने से अचल हैं । शरीर-मन न होने के कारण पीडा न होने से अरुज हैं । क्षय न होने के कारण अक्षय हैं ।
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