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________________ हैं, ऐसा लगा ? भगवान जगत के तो हैं, लेकिन मुझे क्या लेनादेना ? भगवान मेरे लगने चाहिए । जगत के जीव अपने लगने चाहिए | भगवान मेरे न लगे वहां तक प्रेम उत्पन्न नहीं होगा । शरीर, इन्द्रिय, परिवार, धन, मकान इत्यादि मेरे लगते हैं, पर भगवान मेरे हैं, ऐसा कभी लगता हैं ? शरीर आदि तो यहीं रहेंगे । अंतिम समयमें ये सभी कह देंगे : अब हम आपके साथ नहीं आयेंगे । आप आपके मार्ग पर पधारो ! अलविदा ! जिसके साथ पांच- पच्चीस वर्षों तक रहना हो उसके साथ दोस्ती करनी और सदाकाल रहनेवाले के साथ उपेक्षापूर्वक वर्तन करना, यह कैसी बात ? (३१) सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं । इस विशेषण से सांख्य मत का निरसन हुआ हैं । भगवान सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं । कर्म के बादल का आवरण दूर होते आत्मा चंद्र की तरह प्रकाशित हो उठती हैं । वह सब की ज्ञाता और सर्व की दृष्टा बनती हैं । * ज्ञानादि गुण जीव से भिन्न भी हैं, अभिन्न भी हैं । लक्षण, संख्या, प्रयोजन और नाम से गुण भिन्न हैं । गुण-गुणी के अभेद से अभिन्न भी हैं । हम खिड़की-दरवाजे इत्यादि बंध करके बैठे हैं । कहीं से आत्मारूपी चंद्र का प्रकाश आ न जाये । ज्ञानी कहते हैं : दरवाजा खोलो । दरवाजा खोलना मतलब ज्ञान और ज्ञानी के प्रति आदर करना । ज्ञान के प्रति आदर बढने पर ज्ञान आता ही हैं । इसलिए ही कहा हैं : 'जिम जिम अरिहा सेवीये रे, तिम तिम प्रगटे ज्ञान सलुणा ।' पं. वीरविजयजी यह तो भगवान या गुरु के दर्शन के बिना पच्चक्खाण पार नहीं सकते, इसलिए ही भगवान के दर्शन करते हैं और गुरु के वंदन करते हैं । यह नियम नहीं होता तो हम दर्शन करते या नहीं यह भी सवाल हैं । कहे कलापूर्णसूरि ४ २७९
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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