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________________ वढवाण, वि.सं. २०४७ ९-११-२०००, गुरुवार कातिक शुक्ला - १३ * चतुर्विध संघ के प्रत्येक सभ्य की जवाबदारी हैं : ऐसे कालमें भी पूर्वजोंने जो प्रयत्न करके शासन की अविच्छिन्न परंपरा दी, उस परंपरा को आगे चलाना । * बहुत बार विचार आता हैं : साक्षात् भगवान नहीं मिले यह अच्छा ही नहीं हुआ ? मूर्ख और निर्भागी को चिंतामणि मिल जाये तो वह कौआ उडाने के लिए उसे फेंक देगा । भाग्य के बिना उत्तम वस्तु समझमें नहीं आती, सफल नहीं बनती । साक्षात् भगवान अगर मिल भी गये होते तो हम मजाक ही उडाते ! बहुत से भवोंमें भगवान मिले ही होंगे, लेकिन हमने मजाक ही उडाया होगा । इसलिए अभी जो मिला हैं, उस पर बहुमान धारण करें तो भी काम हो जायेगा, कितनी दुर्लभ सामग्री मिली हैं हमें ? मानव-अवतार, धर्म-श्रवण, धर्म-श्रद्धा और धर्म का आचरण - इन चार को भगवान महावीर देवने स्वयं दुर्लभ बताये हैं । हमें ये दुर्लभ लगते हैं ? * भगवान अच्छे हैं, ऐसा तो लगा, किंतु भगवान मेरे (२७८0000000 00 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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