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________________ * ज्ञानसार, योगसार, अध्यात्मसार, आगमसार (पू. देवचंद्रजीका) इत्यादि ग्रंथ सारभूत हैं । दूसरा कुछ न कर सको तो इन ग्रंथों का अभ्यास अवश्य करें । इन ग्रंथों से संक्षेपमें हमें सारभूत पदार्थ मिल जाते हैं । आगमसार पू. देवचंद्रजी की कृति हैं । मैंने गृहस्थावस्थामें ही कंठस्थ किया हैं । नयचक्रसार भी इनका ग्रंथ हैं, लेकिन कठिन हैं, इसलिए नहीं कहता ।। आज हमारा ध्येय ही बदल गया हैं । हमारी रुचि ही बदल गई हैं । अध्यात्म की ओर रुचि हो तो ये सब ग्रंथ पढने की इच्छा होगी न ? रुचि हो वहा शक्ति का उपयोग होता ही हैं । हमारी शक्तियां हमेशा हमारी इच्छा का ही अनुसरण करती हैं । आत्मा की ओर मूड़ने की तीव्र इच्छा ही सम्यग्दर्शन हैं । * अरूपी पवन कार्य से मालूम पड़ता हैं । अरूपी आत्मा गुण से जान सकते हैं । ज्ञानादि गुण आत्मा के अलावा दूसरी जगह कहीं देखा हैं ? हमारे ज्ञानादि गुण प्रभु के साथ तन्मय बनने के लिए हैं । शिक्षक का ज्ञान विद्यार्थीमें आ सकता हो तो भगवान के गुण हमारे अंदर संक्रान्त क्यों नहीं हो सकते ? * दीपक स्वयं जलता हैं । किंतु दूसरे को जलाने की वह शक्ति धारण करता हैं । दीपक दूसरे को जलाये तो वह थोड़ा भी कम नहीं होता । भगवान भी दीपक हैं । स्वयं राग-द्वेष को जीतनेवाले हैं, अन्य को भी जीतानेवाले हैं । (२८) तिण्णाणं तारयाणं । भगवान स्वयं संसार तैरे हुए हैं । इनके आश्रित को भी तिरानेवाले हैं । जहाज मात्र स्वयं नहीं तैरती, दूसरे को तैराती भी हैं । भगवानने इस समुद्र में छोटी नौकाएं (देशविरति की) भी रखी हैं, परंतु शर्त इतनी : नौकाओं द्वारा आखिर बड़ी स्टीमर पकड़ लेनी । * चलनेवाला गिर जाये तो उसे कोई उठानेवाला मिलेगा ही । गिर जाने के भय से कोई चलना बंद नहीं करता। कहे कलापूर्णसूरि - ४ 50 0 २७५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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