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जगत के उद्धार का मिशन लेकर बेठे हैं । इनके पास कितने उच्च प्रकार की स्वरूप-परोपकार आदि संपदाएं होनी चाहिए ? .
मोक्षमें जाने के बाद ये शक्तियां बंद हो जाती हैं, ऐसा न मानें, आज भी ये शक्तियां काम कर ही रही हैं ।
सैनिक लड़ते हो तब सरकार की जवाबदारी होती हैं : कम होती वस्तु पूरी करने की । हम मोह के सामने लड़ते हों और निर्बल बने तब बल देने की भगवान की जवाबदारी हैं । जरुरत हैं, मात्र भगवान के साथ अनुसंधान की । सैनिक के पास इतनी ही अपेक्षा हैं : वह देश को वफादार रहे । भक्त के पास से इतनी ही अपेक्षा हैं : वह भगवान को समर्पित रहे ।
(२७) जिणाणं जावयाणं ।
कंटकेश्वरीने जैसे कुमारपाल के उपर गुस्सा किया : मेरी बलिप्रथा क्यों अटका दी ? मोहराजा भी हमारे पर गुस्सा करता हैं : मेरे मुकाम को छोडकर भगवान के मुकाममें क्यों तू गया ? कुमारपाल कंटकेश्वरी के सामने मक्कम रहा, वैसे हमें भी मक्कम रहना हैं । भगवान की शरणमें जाना हैं । भगवान की तो स्पष्ट बात हैं : मैंने मोह आदि पर जय प्राप्त किया हैं, मेरी जो शरण ले उसके भी मोह का मैं नाश करता हूं । तो ही मैं अरिहंत ! मैं मात्र जीतनेवाला नहीं, जीतानेवाला भी हूं ।
राग, द्वेष, मोह आदि के आक्रमण तो होते ही रहेंगे। बड़े साधक के जीवनमें भी ऐसे हमले आते हैं । यदि न आते हो तो उपाध्यायजी म. जैसे यों नहीं गाते : _ 'तप - जप - मोह महा तोफाने, नाव न चाले माने रे ।'
साधना के मार्ग पर साधक को ऐसे अनुभव होते ही रहते हैं । इस अनुभव का यहाँ वर्णन हैं। ..
इसलिए ही योगशास्त्र के ४थे प्रकाशमें विषय-कषाय और इन्द्रियों के जय के बाद मनोजय करने को कहा हैं ।
हमारी परंपरा भी यही हैं । इसलिए ही वैराग्यशतक, इन्द्रियपराजयशतक इत्यादि पढाये जाते हैं । वैराग्यशतक, इन्द्रिय पराजयशतक आदि छोड़कर मात्र व्याकरण आदिमें पड़े तो खतरा उत्पन्न हो सकता हैं ।
(२७४ 00000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)