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________________ 'लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ।' ____- ज्ञानसार परंतु यह सब सीखने से पहले व्यवहारमें निष्णात बनना पड़ेगा । यदि सीधा यह दृष्टिकोण अपनाने गये तो कानजी के मत के अनुयायीओं के जैसी हालत होगी, जो पूजा-प्रतिक्रमण आदि सब छोड़ देते हैं । साधना के मार्गमें क्रमशः आगे बढो तो ही मंझिल पर पहुंच सकते हो । बिना नींव की इमारत बनाने जाओ तो क... क... ड... भूस होकर ही रहेगी । आपश्री द्वारा भेजी गई 'कहे कलापूर्णसूरि ३' एवं मन्नारगुडी से पु.नं. २ प्राप्त हुई । हररोज सुबह सामायिकमें इन्हीं पुस्तकों पर वांचन चल रहा है। आपका संकलन एवं गुरु भगवंत की वाचना इतनी गजब की हैं कि मानो वे फलोदीमें नहीं, बल्कि बेंगलोरमें हमारे समक्ष बैठकर समझा रहे हैं । सामायिक का समय कब पूरा होता हैं पता नहीं चलता । महोपाध्याय यशोविजयजी म.सा. को विमलनाथ भगवान की प्रतिमा देखकर तृप्ति नहीं होती हैं बल्कि देखने की जिज्ञासा बढती हैं । उसी भांति हमें आपका साहित्य पढकर ऐसे साहित्य ज्यादा से ज्यादा पढने की जिज्ञासा बढती हैं । पू. गुरु भगवंतश्री ज्यादा से ज्यादा ऐसी प्रवचन गंगा की धारा प्रवाहित करते रहे एवं आप उस धारा को हम तक पहुँचाते रहें । - अशोक जे. संघवी बेंगलोरला | २७२oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-४]
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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