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करते हैं', ऐसा वे मानते हैं । जैसे गीतामें श्री कृष्णने कहा हैं : यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !..... तदा तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ।
आजीवकों का भी ऐसा ही मत था । परंतु यहाँ कहते हैं : भगवान तो संपूर्ण रूप से छद्मस्थ अवस्था से पर हो गये हैं : अविद्या उनकी नष्ट हो गई हैं । 'मोक्ष से अगर कोई वापस नहीं ही आता तो संसार खाली नहीं हो जाता ?' ऐसा प्रश्न मत करना । जितने तीनों काल के समय हैं, उससे भी ज्यादा जीव संसारमें हैं, जो कभी भी खाली होंगे नहीं । यदि ऐसा मानेंगे तो जीवों की क्रमशः मुक्ति होते संसार पूरा खाली हो जायेगा, पर यह कभी हुआ भी नहीं और होगा भी नहीं ।
* आज्ञा के दो प्रकार हैं : निश्चय और व्यवहार । जड़ पदार्थों के लिए एक निश्चय आज्ञा ही हैं । जब हमें साधना करनी हो तो व्यवहार आज्ञा माननी पड़ती हैं । तो ही हम उपादेय का आदर और हेय का अस्वीकार कर सकेंगे ।
पू. हेमचंद्रसागरसूरिजी : एक तरफ भगवान की आज्ञा हैं : पुद्गल स्वयं का कार्य करते हैं । दूसरी तरफ भगवान की आज्ञा हैं : पुद्गल शत्रु हैं । उसे छोड़ो । क्या समझना ?
पूज्यश्री : हम कर्मसत्ता से दबे हुए हैं । भगवान हमें हमारा सिंहत्व (आत्मत्व) जानने को कहते हैं । पुद्गल छुटे नहीं वहाँ तक आत्मत्व जान नहीं सकते ।
भगवान की इतनी ही आज्ञा हैं : जिस जिस प्रवृत्ति से कर्मबंधन होता हो वह वह कार्य कभी न करें । जिस प्रवृत्ति से कर्म टूटते रहे उस उस कार्य को करते कभी रुको मत ।
परभावमें जाने पर कर्मबंधन होगा ही ।
स्वभावमें आने पर कर्मबंधन रुकेगा ही ।
इसलिए ज्ञानसिद्ध बनना पड़ेगा । पुद्गलों के बीच रहने पर भी ज्ञानसिद्ध कर्मों से लिप्त नहीं होता । स्वार्थरूपी काजल के घर जैसे संसारमें रहे हुए सर्व जीव लिप्त होते हैं, लेकिन ज्ञानसिद्ध लिप्त नहीं होता ।
कहे कलापूर्णसूरि ४
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