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व्याख्यानमें नया-नया था तब मुझे वे अनेक तरह से प्रोत्साहित करते थे । व्याख्यान के नये मुद्दे देते । व्याख्यान किस तरह देना ? उस बारेमें समझाते । स्वयं व्याख्यान अधूरा छोड़कर मुझ से बुलवाते, मेरे व्याख्यान की प्रशंसा कर मुझे प्रोत्साहित भी करते ।
आज मेरा जो व्यक्तित्व हैं, उसकी तालीममें अनेक परिबल रहे हुए हैं, उसमें पूज्य श्री भी एक महत्त्व के परिबल थे । पं. छबीलदासजी ऐसे प्रसंग पर एक संस्कृत श्लोक कहते वह याद आ जाता हैं :
हंस जब सरोवर को छोड़कर चले जाते हैं तब हंस को तो कोई कमी नहीं पड़ती । क्योंकि जहाँ राजहंस जायेगा, वहाँ सरोवर का निर्माण हो ही जायेगा । परंतु सरोवर सूना हो जायेगा । जिनशासन का यह सरोवर भी पूज्यश्री के बिना अभी सूना हुआ हैं ।
* पू. गणि श्री मुनिचंद्रविजयजी : हिन्दी कवि श्री मैथिलीशरण गुप्तने कहा हैं : 'अंधकार हैं वहां, जहां आदित्य नहीं हैं; मुर्दा हैं वह देश, जहां साहित्य नहीं हैं ।'
हमारे लक्ष्मीपुत्र समाजमें साहित्यकार के रूपमें प्रसिद्ध हुए पूज्य आचार्य विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी थे ।
यद्यपि, पूज्यश्री के साथ मेरा खास परिचय नहीं हैं। सिर्फ दो ही बार उनको देखे हैं । एक बार गृहस्थावस्थामें... वि.सं. २०२७में मुंबई सायन के उपाश्रयमें, जब मैं ११ - १२ वर्ष की वय का था । बड़े भाई के साथ सायन मंदिरमें दर्शनार्थ गया था । बाजु के उपाश्रयमें पू. मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी का प्रवचन चल रहा था । बड़े भाई के साथ मैं भी सुनने बैठा । इनके प्रवचन का एक वाक्य आज भी याद हैं : 'मोहराजा कपालमें कुंकुम का तिलक लगाकर उपर कोयले का चूर्ण लगाता हैं ।' कौन से संदर्भमें यह वाक्य था वह याद नहीं हैं, किंतु वाक्य आज भी याद हैं । तब क्या पता था कि इन्हीं महात्मा की गुणानुवाद सभामें इनका यह वाक्य मुझे बोलना पड़ेगा ?
दीक्षा पर्याय के २९ वर्षमें एक ही बार पूज्यश्री के दर्शन
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७ कहे कलापूर्णसूरि - ४)
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