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________________ हुए । वि.सं. २०५५ के वैशाख महिनेमें (इनके स्वर्गवास से ५६ महिने पहले ही) पूज्यश्री के दर्शन श्यामल फ्लेटमें किये । भयंकर व्याधिमें भी अद्भुत समाधि चेहरे पर दिखती थी । पूज्यश्री अभी भले देह से हाज़िर नहीं हैं, परंतु साहित्यदेह से अमर हैं । उच्च प्रकार के साहित्यकारों की कभी मृत्यु नहीं होती। अक्षरदेह से सदा जीवंत रहते हैं । जहां तक ज्ञानसार, प्रशमरति, शांत सुधारस जैसे ग्रंथों पर के इनके विवेचन - ग्रंथों का अभ्यास चलता रहेगा तब तक पूज्यश्री जीवंत रहेंगे। ललित विस्तरा, योगदृष्टि समुच्चय इत्यादि अनेक ग्रंथों द्वारा पू. हरिभद्रसूरिजी आज भी जी रहे हैं । ज्ञानसार, अध्यात्मसार आदि ग्रंथो द्वारा पू.उपा.श्री यशोविजयजी आज भी हमारे बीच हैं । ऐसे व्यक्तिओं की कीर्ति को कौन मिटा सकता हैं ? 'नाम रहंतां ठाकरा, नाणा नवि रहंत; कीर्ति केरा कोटडा, पाड्या नवि पडंत ।' पू. मुनि श्री उदयप्रभविजयजी : वक्तृत्व, लेखन और अनुशासन इस त्रिवेणी का विरल संगम पूज्यश्रीमें हुआ था । यद्यपि, वक्तृत्व कठिन हैं ही, पर लेखन उससे भी कठिन हैं । क्योंकि बोलते समय आडा-टेढा बोल दें तो भी चलता हैं, लेकिन लिखनेमें गड़बड़ हो जाये तो बिलकुल नहीं चलता । पूज्यश्री के पास वक्तृत्व और लेखन दोनों की शक्ति थी । अनुशासन गुण भी पूज्यश्रीमें जोरदार था । मद्रास चातुर्मासमें शिबिरोंमें बालकों का अनुशासन के द्वारा किस तरह नियंत्रण करते वह मैंने गृहस्थावस्थामें अपनी आंखों से देखा हैं । एक आखमें भीम-गुण तो दूसरी आखमें कान्त-गुण भी था । मैं पर-समुदायमें दीक्षा लेनेवाला हूं, यह जानने पर भी पू. भुवनभानुसूरिजी, पू. जयघोषसूरिजी, पू. जयसुंदरविजयजी आदिने मुझे हुबली - चातुर्मासमें प्रेम से अध्ययन कराया हैं। ऐसे उदार दृष्टिकोण रखनेवाले समुदायमें पूज्यश्री संकुचित दृष्टिकोणवाले कैसे हो सकते हैं ? कहे कलापूर्णसूरि - ४ Boooooooooooooooon २६५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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