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'द्रव्य क्षेत्रने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी; तास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी ।'
• पू. देवचंद्रजी साम, दान, दंड और भेद इन चार से राजनीति चलती हैं उस प्रकार भगवान की आज्ञा भी चार प्रकार की हैं ।
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प्रत्येक द्रव्य की मर्यादा : स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव और स्वगुणमें रहना । इसका कोई उल्लंघन कर सकता हैं क्या ? * जीवास्तिकाय के रूपमें हम सब एक हैं । 'एगे आया ' इत्यादि सूत्र इस तरह ही घट सकते हैं । चेतना की अपेक्षा से जीव का एक भेद एकता को बताता हैं ।
जीवास्तिकाय द्रव्य से अनंत, क्षेत्र से लोकव्यापी, काल से शाश्वत, भाव से अवर्ण, अगंध और अरूपी हैं । अरूपी होने पर भी अस्तित्व धारण करता हैं । इसलिए ही वह जीवास्तिकाय कहा जाता हैं ।
जीवास्तिकायमें एक जीव का एक प्रदेश भी कम हो तो वह जीवास्तिकाय नहीं कहा जा सकता । इसमें हम भी आ गये न ?
इन लक्षणों से कोई जड़ बाहर जा सकता हैं ?
पू. हेमचंद्रसागरसूरिजी : हम भी कहाँ उल्लंघन करते हैं ? पूज्यश्री : भगवानने जीवों के साथ मैत्री करने को कहा, हम नहीं करते, यह उल्लंघन नहीं कहा जाता ?
पू. हेमचंद्रसागरसूरिजी : आपने एंगल बदल दिया । पूज्यश्री : बदलना ही पड़ता हैं न ? इस तरह लें तो ही साधनामें गति आती हैं ।
* भगवान के मनोवर्गणा के पुद्गल अनुत्तर विमान तक पहुंच सकते हो तो हम तक नहीं पहुंचेंगे, ऐसा किसने कहा ? दूसरों के लिए शुभ भाव भायें । अवश्य असर होगा ही । मात्र बोलने से ही सुधरते हैं, ऐसा नहीं हैं, मन से भी सुधर सकते हैं, यह समझना है ।
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सरोवर के पास जाते ही शीतलता का अनुभव होता हैं, उसी तरह संतों के पास जाते ही शीतलता का अनुभव होता हैं, उसका कारण उनके हृदय का शुभ भाव ही हैं ।
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१८८७ कहे कलापूर्णसूरि ४