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पदार्थ को देखें तो पर्याप्त हैं। यहाँ इस मतका खंडन हुआ हैं । वीतराग प्रभु अप्रतिहत उत्तम ज्ञान और दर्शन को धारण करनेवाले हैं । सर्वज्ञता की मज़ाक उडाते इन बौद्धोंने कहा हैं : सर्वं पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु ।
प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृधानुपास्महे ॥ हमारे भगवान सब देखे या न देखे । लेकिन इष्ट तत्त्व को देखो । दूरदर्शी को ही यदि प्रमाण गिना जाय तो हम गीध की उपासना करें । गीध कितने दूर-दूर तक देख सकता हैं ?
पांचों आचारों का ज्यों ज्यों पालन होता जाय त्यों त्यों ज्ञानादि का क्षयोपशम बढता जाता हैं । ज्ञान और ज्ञानी की आशातना न करें, ज्ञान ज्ञानी का बहुमान करें, इत्यादि द्वारा ज्ञान बढ़ता रहता हैं।
दीक्षा ली तब कितना आता था ? अब ज्यादा आता हैं, उसमें ज्ञानाचार के पालन का प्रभाव हैं, यह समझमें आता हैं ?
केवलज्ञान-दर्शन तो हमारा स्वभाव हैं । यह स्वभाव हम प्राप्त न करें तो कौन प्राप्त करेगा ?
. भगवान संपूर्ण जगत को पूर्णरूप से देखते हैं, परंतु हम हमें स्वयं को भी पूर्णरूप से नहीं देखते हैं । भीतर मिथ्यात्व बैठा हैं न ?
उपाश्रय, शिष्य, भक्तवर्ग, बोक्ष इत्यादि मेरे हैं ऐसा लगता हैं, किंतु ज्ञानादि मेरे हैं, ऐसा लगता हैं ? ।
भक्त आदि से लगती पूर्णता मांगे हुए आभूषण जैसी हैं । ज्ञानादि की पूर्णता हमारी स्वयं की हैं, यह न भूलें ।
जिनकी पूर्णता प्रकट हुई हैं, उनका बहुमान करते रहो तो भी काम हो जायेगा । परंतु अंदर से मानते हो ? पूर्णता देखने के लिए अंदर की आख चाहिए । बड़े-बड़े पंडितों के पास भी ऐसी आँख नहीं होती । पं. सुखलाल जैसे बड़े पंडित को भी भगवान की सर्वज्ञतामें विश्वास नहीं था । भगवान और गुरु की कृपा के बिना सर्वज्ञता का पदार्थ समझमें नहीं आता ।
* अब कल की बात करूं । पू. देवचंद्रजीने कहा हैं : जड़ और चेतन सभी भगवान की आज्ञा के अनुसार चल रहे हैं । आगे बढकर मैं वहाँ तक कहूंगा : हमसे भी जड़ पदार्थ भगवान की आज्ञा ज्यादा पालते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४wwwwwwwwwwwwwwwwwwws २६१)