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________________ मुझे संस्कृत अभ्यास की प्रेरणा दी । * इस जन्ममें जितनी चीजें मिलेगी, कुछ अपूर्ण होगा तो भी चिंता न करें, आगामी भवमें अधूरी साधना पूर्ण होगी । परंतु साधना ही शुरु नहीं हुई हो तो कैसे पूर्ण होगी ? भगवान के जैसा उपादान प्राप्त करके हमारी आत्मा कल्याण न साधे तो कब साधेगी ? दूसरे किसी को नहीं तो हम स्वयं को तो उपालंभ दे सकते हैं न ? हमारे दीक्षादाता पू. रत्नाकर वि.म. स्वयं को शिक्षा देते । काउस्सग्ग इत्यादिमें प्रमाद आये तो स्वयं ही स्वयं को थप्पड़ मार देते थे । * चक्रवर्ती के चक्र से बड़े-बड़े शत्रु राजा भी डर जाते हैं । भगवान के धर्मचक्र से भी चारों गति, चारों कषाय, चारों संज्ञाएं चकनाचूर हो जाती हैं, चारों धर्म मिल जाते हैं । अतः एव ही भगवान चातुरंत चक्रवर्ती हैं । * पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट काल २०० से ९०० सागरोपम हैं । यदि इतने कालमें काम न किया तो विकलेन्द्रिय - एकेन्द्रियमें जाना पड़ेगा । इसलिए ही प्रमाद करने की शास्त्रकारोंने मना की हैं । किंतु सुने कौन ? जीवनमें उतारे कौन ? * सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धिगति तक भगवान इस तरह ही (संसार का अंत करनेवाले धर्म चक्रवर्ती के रूपमें) वर्तते हैं । जहाँ भगवान जाते हैं वहाँ मोह के साम्राज्य को तोड़-फोड़ देते हैं । हमें यहाँ तक भगवानने ही पहुंचाया हैं न ? लेकिन हम कभी-कभी भगवान को छोड़कर मोह के पंडालमें घुस जाते हैं । अथवा यहाँ रहकर मोह के एजन्ट का काम करते हैं, जैसे भारतमें रहते आतंकवादी पाकिस्तान के एजन्ट बनकर काम करते हैं । . रहना भगवान के शासनमें और काम करना मोह का, यह कैसा ? रहना भारतमें और काम करना पाकिस्तान का, यह कैसा ? * धम्मदयाणं से लेकर धम्मवरचाउरंत तक विशेष उपयोग संपदा हुई । (२५) अप्पडिहयवरनाण-दसण-धराणं । कितनेक (बौद्ध) स्वयं के भगवान को 'प्रतिहतवरज्ञानदर्शनधर' मानते हैं। वे कहते हैं : हमारे भगवान सर्वज्ञ हो या न हो, हमारे इष्ट (२६० 00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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