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की पीडा जाने वह वैष्णव हैं । अठारह पुराणों का सार पर की पीडा का त्याग हैं ।
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'अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥'
(हालांकि पुराण व्यास ने बनाये है, ऐसा मैं नहीं मानता) यही हिन्दु-प्रज्ञा का नवनीत है ।
नरसिंह ने विष्णु के नाम पर पूरा जैन दर्शन ही डाल दिया है । नरसिंह के सामने शेक्सपियर फिक्का है ।
धर्म परिषद में किसी जैन ने कहा था : अभी धर्म में परिवर्तन की जरुरत है ।
उस वक्त मैं १८ वर्ष का था, मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा : धर्म में परिवर्तन संभवित नहीं है ।
धर्म अपरिवर्तनीय है वैसे अखंड है। यहां मिली-जुली संस्कृति नहीं है, एक है ।
संस्कृति की कभी कोकटेल नहीं हो सकती । फिटकरी और
दूध का मिश्रण नहीं हो सकता । संस्कृति का काम है : एक करना । भेद करता है वह धर्म नहीं, संप्रदाय है ।
धर्म राजनैतिक संवैधानिक नहीं है कि उसे हम चाहे जैसे बदल दें ।
तुलसीदास कहते है :
सभी नमनीयों को मैं नमन करता हूं ।
यही हिन्दु संस्कृति है । यही जैन - वैष्णव प्रज्ञा है । नेहरु ने डिस्कवरी की है। वाकई में भारत माता की डिस्कवरी
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हो ही नहीं सकती । जिसने भारत माता में माता नहीं, जमीन का टुकड़ा देखा, वे क्या डिस्कवरी करेंगे ?
* प्रभु के अनंत नाम-कीर्तन करने से प्रज्ञा निर्मल होती है । अरिहंत हरे... अरिहंत हरे... अरिहंत हरे... अरिहंत हरे... हरण करता है वह हरि है, हर है । मैं हरि और हर दोनों का आदर करता हूं । हरद्वार और हरिद्वार दोनों नामों में मेरी सम्मति है । केदारनाथ जाना है तो हरिद्वार है । बद्रिनाथ जाना हे तो हरद्वार है ।
(कहे कलापूर्णसूरि ४
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