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किया । तब सभा मुग्ध बन गई थी । इनकी केसेट विश्वभरमें जाती हैं । कवि, साहित्यकार और वक्ता हैं । शायद ही देखने मिले वैसे अजोड़ वक्ता हैं ।
अहमदाबादमें पृ. रत्नसुंदरसूरिजी, पृ. हितरुचिविजयजी को लघुमती विषयक चर्चा-विमर्श के लिए मिले हैं ।
आचार्य धर्मेन्द्रजी : ओं...
भगवान के अनेक नाम-रूप है । नमोऽस्तु अनंतमूर्तये सहस्ररूपाय ।
भगवान को अनेक नामों से स्मरण करने की हमारी परंपरा है । उन्हीं में एक नाम है : अरिहंत । जैन परंपरा के अनुसार णमोक्कार मंत्र अरिहंत के नमन से शुरु होता है।
* हिन्दु वह है जो सब को नमन करता है। जो अहिन्दु है वह नमन नहीं करता । उदंड अहिन्दु है ।
सभी नामों में प्रभु देखना हिन्दु - परंपरा है ।
अरिहंतों के बाद फिर दूसरों को (सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) भी नमस्कार किया गया ।
हिन्दुचेतना नमन करने में रुकती नहीं, पुस्तकों के कीटों को नहीं, लेकिन आचारवंत आचार्यों को यहां प्रणाम है ।।
आचार्यों तक पहुंचानेवाले उपाध्याय है। जिन्होंने मुझे ज्ञानमंदिर में पहुंचाया, उन उपाध्यायों को नमन ।।
संसार के सभी साधुओं को भी नमन । हिन्दु प्रज्ञा की यही व्याख्या है । ___ 'सकल लोकमां सौने वंदे, निंदा न करे केनी रे, वाच-काछ-मन निर्मल राखे, धन-धन जननी तेनी रे ।'
- नरसैंया रात को १२ बजे मैं यहां आया । मुझे जल्दी नींद नहीं आती । अच्छा तो नहीं हूं। अच्छे की संगति में तो रह सकता हूं। मैंने वहां पड़ी हुई दो-तीन पुस्तकें पढी । शुद्ध श्रावक के द्वारा प्रकाशित स्तवन थे । उसमें प्रारंभ था : 'नैनं छिन्दन्ति' गीता का यह श्लोक था । उस में कबीर, मीरां की भी कृतियां थी।
लंबा तिलक खींचे वह वैष्णव हैं, ऐसे नहीं कहा, मगर पर [२५२00oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)