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________________ - हमारी तो प्रथम से ही आरण्यक संस्कृति थी । लेकिन वनवासीओं को समझाया : तुम आदिवासी हो, मूलवासी हो। लेकिन वेद आदि शास्त्रोंमें ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है, जहां कुछ ऐसा उल्लेख हो । उल्लेख का एक अंश भी नहीं मिलता, फिर भी हमने यह सब मान लिया । लघुमती के बुखार का क्या आधार है ? मेकोले ने जो घुसाया वह नेहरु के दिमाग में घुसा दिया गया । स्वयं इतिहासकार न होने पर भी उसने यह (विश्व इतिहास की झलक) लिख दिया । उस प्रकार मुट्ठीभर अंग्रेजों ने पूरे हिन्द में यह विचार फैला दिया । अजैन हिन्दु समुदाय ८४ करोड़ है। जैन १ करोड़ है । कौन भरत ? ऋषभदेव का पुत्र कौन भरत ? हम नहीं मानते । ऐसा कोइ प्रश्न हिन्दुओं द्वारा नहीं किया गया । बहुमती होने पर भी नहीं किया गया । भरत तीन है : ऋषभ, दशरथ और दुष्यन्त के पुत्र । लेकिन सभी मानते है : ऋषभदेव के पुत्र भरत से ही भारत बना है । इसमें किसी हिन्दु ने विरोध नहीं किया । अगर यह देश है तो ऋषभदेव के संतानों का है । यह भरत का है, यह भारत है। 'भारत' का अर्थ अर्जुन है । गीता आदि में इसका प्रयोग भी है : यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति 'भारत' । इस अर्थ में हम सभी 'भारत' है। इसमें विश्वास करनेवाले ८५ करोड़ है। पांच करोड़ भारत से बहार है । अगर हम अलग होंगे तो केवल वेटिकन का ही भला होगा । दो अरब मिलकर भी इसा-मुसा का सामना करना मुश्किल है तो इन हिंसकों के (ईशु व हज़रत महम्मद दोनों मांसाहारी थे) समुदाय के सामने एक करोड़ हो कर आप कैसे एक रह सकेंगे ? ऐसा विभाजन अगर चालु रहा तो फिर जैनों में भी श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी, स्थानकवासी..... दिगम्बर में भी सामैया (जिसमें रजनीश पैदा हुआ) आदि के अंदर भी फूट पड़ती रहेगी । फिर लघुमती इतनी बढती जायेगी कि हमारा टिकना मुश्किल रहेगा । . इस कलियुग में एकता ही ताकत है । (कहे कलापूर्णसूरि - ४ womasoooooooooooooom २४७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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