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________________ परंतु भगवान कोई ऐसे कंजूस नहीं हैं । भगवान तो दूसरों को देने के लिये तैयार ही हैं । इस ललित-विस्तरामें भगवान की स्तुति के साथ साथ अजैन मतों का निराकरण भी हरिभद्रसूरिजी द्वारा हुआ हैं । जैनों पर होते आक्षेपों को सुनकर श्रद्धालु बैठे नहीं रहते, प्रतिवाद करते हैं । आज कोई कहे : 'जैन दर्शनमें ध्यान-योग नहीं हैं ।' तो हम सुनकर बैठे रहते हैं और इससे आगे बढकर हमारे कई लोग साथ मिलकर उनकी शिबिरोंमें भी जाते हैं । परंतु हरिभद्रसूरिजी ऐसे शिथिल श्रद्धावाले नहीं थे । उन्होंने एकेक आक्षेपकारी की बराबर खबर ले ली हैं । जैनदर्शन पर उनकी श्रद्धा बहुत ही अगाध थी । * चक्रवर्ती का चक्र इस लोकमें ही उपकारी हैं । धर्म चक्रवर्ती का धर्मचक्र इस लोक और परलोकमें भी उपकारी हैं । चक्रवर्ती का चक्र शत्रु को काटता हैं । धर्म चक्रवर्ती का चक्र चार गति को काटता हैं । अथवा चार प्रकार के दानादि धर्म से संसार को काटता हैं, अति भयंकर मिथ्यात्व आदि भाव शत्रुओं को 'काटता हैं । दान इत्यादि के अभ्यास से आसक्ति आदि का नाश होता हैं । दान से धन की, शील से स्त्री की, तप से शरीर की और भाव से विचारों की आसक्ति टूटती हैं, वह स्वानुभव सिद्ध हैं । H H जीवों का अज्ञान क्या हैं ? पूज्य श्री : सर्वज्ञ का वचन न जाने वह अज्ञान अथवा उसके अलावा सर्व व्यवहार - ज्ञान वह अज्ञान । उससे व्यवहार चलता है, लेकिन मोह नष्ट नहीं होता । उपयोगमें मोह का मिलन वह अज्ञान । ज्ञान से मोह नष्ट होता हैं । सुनंदाबहन वोरा कहे कलापूर्णसूरि ४ - १७ २४३
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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