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'द्रव्य क्षेत्रने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी तास विना जड-चेतन प्रभुनी, कोइ न लोपे कारजी ।'
- पू. देवचंद्रजी पू. हेमचंद्रसागरसूरिजी : यह आज्ञा कहाँ हैं ? यह तो स्वरूप
पूज्यश्री : मुझे पता था, आप प्रश्न करेंगे। परंतु हमारे भगवान कवच करके बैठे हैं । भगवान की आज्ञा के चार प्रकार हैं : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । इस विषय पर विशेष कल समझाऊंगा ।
* निक्षेप वस्तु का स्वरूप अथवा वस्तु का पर्याय हैं । पर्याय कभी वस्तु से अलग नहीं होता । पर्याय के बिना द्रव्य हो नहीं सकता ।
नाम-स्थापना द्रव्य और भाव भगवान के चार निक्षेप हैं । अर्थात् पर्याय हैं। भगवान स्वयं अपने पर्याय से जुड़े हुए हैं। अभी भगवान के नाम, स्थापना और द्रव्य तो हैं, परंतु भाव तीर्थंकर यहाँ सदेह नहीं हैं। किंतु महाविदेह में तो हैं न ? देहसे भले यहाँ नहीं हैं, परंतु ज्ञान से यहाँ नहीं हैं ? केवलज्ञान से भगवान त्रिभुवन व्यापी हैं, ऐसा समझमें आये तो कोई बुरा काम हो सकता हैं ?
श्रद्धा-चक्षु तो हमारे पास हैं ही । इससे भगवान को देख' नहीं सकते ? परंतु देखने की तकलीफ कौन ले ? देखें और कहीं भगवान बीचमें आये तो ?
योगी जिन भगवान के दर्शन करते हैं वह आगम से भाव तीर्थंकर हैं । हम यह सब पढते हैं, किंतु पढकर छोड़ देते हैं । हृदयमें भावित नहीं करते ।
सच कहता हूं : भगवान को मिलने की हमें तमन्ना ही नहीं हैं । मिलने की प्रीति ही नहीं हैं।
बार बार भगवान को प्रेम करने का कहता हूं । इसका कारण यही हैं । भगवान को प्यार किये बिना मार्ग नहीं खुलता ।
भगवान के साथ प्रेम होते ही जगत के सर्व जीवों के साथ प्रेम होगा । क्योंकि जगत के जीव भगवान का ही परिवार हैं ।
भगवान की भगवत्ता जानने से हमें क्या लाभ ? सेठ की समृद्धि के वर्णन से कोई वर्णन करनेवाले को समृद्धि नहीं मिलती, (२४२ 000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)