SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस जैनशासन को प्राप्त करके पर - घर छोड़कर स्व-घरमें आना हैं । इसलिए कर्म के चक्रव्यूह का भेदन करना हैं । I महाभारत के चक्रव्यूह से भी कर्म का चक्रव्यूह तोड़ना कठिन हैं । राग- -द्वेष की तीव्र गांठ ही अभेद्य चक्रव्यूह हैं । हजारों अभिमन्यु पीछे रह जाये ऐसा यह चक्रव्यूह हैं । बहुत बार हम इस ग्रंथि (चक्रव्यूह) के पास आये, लेकिन यों ही वापस लौटे । सम्यग्दर्शन प्राप्त करना आसान नहीं हैं । चक्रव्यूह का भेदन होने के बिना सम्यग्दर्शन नहीं मिलता । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए ही, प्राप्त सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिए ही सम्मतितर्क आदि ग्रंथो का अभ्यास करने के लिए दोषित वस्तु वापरने की छूट हैं । क्योंकि एक के हृदयमें यदि सम्यग्दर्शन का दीप प्रकाशित होगा तो वह हजारों दीप प्रकाशित कर सकेगा । एक आदिनाथ भगवानने कितने का केवलज्ञान रूप दीपक प्रकाशित किया ? इसलिए ही भगवान जगत के अप्रतिम दीपक हैं । 'दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ !' / 'भुवणपईवं वीरं ।' भगवान जगत के दीपक हैं ।' भक्तामर जीवविचार * मार्ग की जानकारी सम्यग् ज्ञान से । मार्ग के उपर जाने की इच्छा सम्यग्दर्शन से मिलती हैं, लेकिन मार्गमें प्रवर्तन तो सम्यग् चारित्र ही कराता हैं । चारित्रमें कदम न उठायें तो समझें : अभी अब तक मुक्तिमार्ग की ओर प्रयाण ही शुरु नहीं हुआ हैं । आप जब धर्ममार्गमें कदम उठाते हो तब भगवान सारथि बनकर अपने आप आपके पास आ जाते हैं । (२४) धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं । भगवान धर्म चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती की आज्ञा तो छः खण्डमें ही चलती हैं, किंतु धर्म चक्रवर्ती भगवान की आज्ञा तीन भुवनमें चलती हैं । ( कहे कलापूर्णसूरि ४ कळ ६ २४१
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy