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________________ मनफरा, वि.सं. २०५६ ५-११-२०००, रविवार ___ कार्तिक शुक्ला - ९ * आत्मा स्वभावमें रहे तो सुखी रहती हैं । स्वाभाविक हैं : मनुष्य अपने घरमें सुखी रहता हैं । वह शत्रु के घरमें रहे तो क्या होगा ? जैनशासनमें जन्म प्राप्त करके हमें यही जानना हैं : मेरा घर कौन सा हैं ? और शत्रु का घर कौन सा हैं ? ___ 'पिया पर - घर मत जावो ।' - चिदानंदजी कृत पद ___'ओ प्रियतम ! पर घरमें मत जाओ । हमारे घरमें किस की कमी हैं कि तुम दूसरों के घर जाते हो ? सभी तरह से सुख होने पर भी पर-घर जाकर क्यों दुःखी होते हो ?' ऐसे चेतना चेतन को कहती हैं । घरमें जो मिलता हैं वह होटलमें कहाँ से मिलेगा ? चेतन को चेतना के अलावा कौन समझा सकता हैं ? भगवान और गुरु तो समझा-समझाकर थक गये । इसलिए चेतना ही चेतन को समझाती हैं । पत्नी सब तरह बराबर होने पर भी पति परघरमें भटके उसमें पत्नी की ही बदनामी होती हैं न ? (२४०0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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