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* साधनामें सिद्धि चाहिए तो वह निरंतर किया करो । थोड़ी देर करो और फिर छोड़ दो वह ठीक नहीं । साधनामें सातत्य चाहिए ।
साधना की लाइन जुड़ी हुई चाहिए । रेलवे-पटरी जुड़ी हुई न हो तो गाडी जा नहीं सकती । हमारी साधना भी खंडित बनी हुई हो तो मुक्ति तक नहीं जा सकती ।
साधनामें सातत्य नहीं हो तो मोहराजा इतना भोला नहीं हैं कि आत्म-साम्राज्य का सिंहासन छोड़ दे । सीट छोड़नी आसान थोड़ी हैं ? एक शायद चला जाये तो उसके स्थान पर दूसरे को छोड़ता जाता हैं, अपनी परंपरा चालु रखता हैं । सीट खाली नहीं ही करता । ऐसे मोह के सामने मैदानमें पड़ना कोई आसान बात नहीं हैं।
साधनामें अगर अतिचार होता रहता है तो अनुबंध का तंतु अखंड नहीं रहता । इसलिए ही यहाँ पंजिकाकारने लिखा हैं : अतिचारोपहतस्य अनुबंधाभावात् ।
यह चारित्र इस जीवनमें तो मिला, मगर अब आगामी भवोंमें तो ही मिलेगा, अगर अनुबंध का तंतु जुड़ा हुआ रहेगा ।
* गुरु की हितशिक्षा से जो थोड़ा भी विचलित नहीं बनता, संपूर्ण समर्पित रहता हैं, वही सच्चा शिष्य कहलाता हैं ।
हेमचंद्रसूरिजी जैसेने तो वहाँ तक कहा : हम कैसे जड़बुद्धिवाले हुए कि हमें समझाने के लिए गुरु को बार बार वाचना देकर श्रम करना पड़ता हैं !
* इस बार जो कुछ पदार्थ खुले, वैसे कभी नहीं खुले । उसमें इस क्षेत्र का प्रभाव हैं ।
* भाव से धर्म की प्राप्ति होती हैं तब उसका सम्यक् पालन, प्रवर्तन और दमन होता ही हैं । यह नहीं होता हो तो समझें : अब तक धर्म की प्राप्ति नहीं हुई ।
प्रथम धर्म की प्राप्ति अज्ञात अवस्थामें होती हैं । मतलब यह हैं कि जीव को स्वयं को भी पता नहीं चलता कि मुझे कितना खजाना मिला ? मानो कि रत्नों से भरी हुई होने पर भी ढकी हुई पेटी मिली ! पता नहीं अंदर रत्न कितने हैं ? इस बात का बौद्ध भी स्वीकार करते हैं ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४ 00000000000000000000 २३९)