SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PERMIRRICUREMADEEN छरी पालक संघ, वि.सं. २०५६ ६-११-२०००, सोमवार कार्तिक शुक्ला - १० पंचखंड पीठ के अधिपति प्रखर हिन्दुवादी संत 'आचार्य'श्री धर्मेन्द्रजी (श्रमणों के साथ वार्तालाप के रूपमें) __मुझे बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है इस पावन तीर्थ में श्रमणों के समुदाय के बीच स्वयं को उपस्थित पा कर । गच्छाधिपति आचार्यश्री संपूर्ण समाज के सूर्य है। उनके सामने मैं भिक्षुक के रूपमें उपस्थित हूं। दादा के दरबार में भिक्षुक बन कर बैठना ही उचित है । चन्द्र जैसे पू. कलापूर्णसूरिजी एवं सूर्य जैसे पू. सूर्योदयसागरसूरिजी दोनों एक साथ बिराजमान है । उनकी कृपा ही हमारा बल है । याचना ले कर उपस्थित हुआ हूं। संस्कृति पर आज कुठाराघात हो रहा है। जैसा संकट आज है, पूर्व काल में कभी नहीं था। आखिर यह कलियुग है न ? कलियुग कहो, या पंचम काल कहो, नाम से कोई फरक नहीं पड़ता ।। हमारे यहां ईश्वर, देश के अनेक नाम है । यहां शब्दों की दरिद्रता नहीं है । इतिहास, गुण, देश के आधार पर नाम हुए है। एक हजार वर्ष से निरंतर आक्रमण हो रहा था । फिर भी (२४४ 0000 00000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy