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________________ भक्ति मक्ति दिलाती हैं, यह सही हैं, लेकिन सीधे-सीधी नहीं, चारित्र के द्वारा दिलाती हैं । भक्ति से चारित्र और चारित्र से मुक्ति मिलती हैं । सचमुच तो चारित्र भक्ति का ही प्रकार हैं । जिसके उपर भक्ति होती हैं उसकी आज्ञा के अनुसार जीने का मन होता ही हैं । उसके अनुसार जीना वही चारित्र हैं। * भगवान भी सिद्धों का आलंबन लेते हैं । दीक्षा लेते समय 'नमो सिद्धाणं' पद का उच्चारण करना वह इस बात का प्रतीक हैं । याद रहे : भगवानमें से भक्तियोग गया नहीं हैं, लेकिन पराकाष्ठा पर पहुंचा हैं । * भक्ति पदार्थ को जैन शैली से समझना हो तो पू. देवचंद्रजी का साहित्य अद्भुत हैं । पू. देवचंद्रजी भक्ति-मार्ग के प्रवासी थे । अत्यंत उच्च प्रकार के आध्यात्मिक पुरुष थे । भिन्न गच्छ के होने पर भी उन्होंने पू. उपा. यशोविजयजी म. को 'भगवान' के रूपमें संबोधित किये हैं । और उनके पास से हमारे तपागच्छ के पद्मविजयजी इत्यादिने अभ्यास भी किया हैं। इसलिए ही उनके (पद्म वि.) स्तवनोंमें भी आपको भक्ति की अनुभूति की झलक देखने मिलेगी। दिगंबर से श्वेतांबर शैली इस दृष्टि से अलग पड़ती हैं । दिगंबर मात्र आत्मस्वरूप पर महत्त्व देते हैं, जब कि श्वेतांबर शैली भगवान को प्रधानता देती हैं । भगवान के बिना आप आत्मस्वरूप कैसे प्रकट कर सकते हो ? स्वयं को बकरा माननेवाले सिंह का सिंहत्व, सिंह को देखे बिना कैसे जागृत हो सकता हैं ? चार भावनाएं मैत्री याने निर्वैर बुद्धि, समभाव । प्रमोद याने गुणवानों के गुण प्रति प्रशंसाभाव । करुणा याने दुःखीजनों के प्रति निर्दोष अनुकंपा। माध्यस्थ्य याने अपराधी के प्रति भी सहिष्णुता। (२३६ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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