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वि.सं. २०५५, भचाऊ - कच्छ
४-११-२०००, शनिवार कार्तिक शुक्ला
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सम्यग् श्रुत - चारित्र धर्म भगवान से विमुख रहनेवाले को नहीं मिलता । क्योंकि धर्म के पूर्ण मालिक भगवान हैं । धर्म प्राप्त करना हो तो धर्म के मालिक की शरणमें जाना पड़ता हैं । यह रहस्य ललित विस्तरामें से ही नहीं, गुजराती स्तवनोमें से भी समझने को मिलता हैं । ये स्तवन नहीं, संकेत हैं । इन शब्दोंमें से कृतिकार का हृदय और उनके अनुभव जानने मिलते हैं ।
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* भगवान की देशना गौण - मुख्यता से चला करती हैं। जिस समय जो मुख्य होता हैं उसे आगे करके भगवान देशना देते हैं । यह ग्रंथ (ललित विस्तरा ) व्यवहार प्रधान हैं । भगवान ही सब कुछ देते हैं ।' यह व्यवहारनय हैं । यहाँ निश्चय की बात लाने जाओ तो नहीं जमेगी । जिस समय जो प्रधान होता हैं उसे उसी तरह समझना पड़ता हैं । 'नयेषु स्वार्थ- सत्येषु, मोघेषु परचालने' प्रत्येक नय अपने दृष्टिकोण से सच्चे हैं, दूसरे को झूठे साबित करनेमें झूठे हैं ।
'भगवान क्या देते हैं ? उपादान तैयार चाहिए । उपादान तैयार न हो तो भगवान कैसे देंगे ? भगवान तो अनंतकाल
( कहे कलापूर्णसूरि ४
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