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* भगवान का वरबोधि सम्यग्दर्शन दूसरों से श्रेष्ठ होता हैं । शम-संवेगादि पांचों लक्षण दूसरों से उत्कृष्ट होते हैं।
'सम्यग्दृष्टि जीव सबसे ज्यादा दुःखी होता हैं ।' - ऐसे गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तरमें भगवानने भगवतीमें कहा हैं, वह (सम्यग्दृष्टि) स्वयं के दुःख से नहीं, परंतु दूसरों के दुःख से दुःखी समझें ।
बेचारे ये जीव अनंत ऐश्वर्य के स्वामी होने पर भी कितने कंगाल और कितने दुःखी हैं ? - वे कब सुखी बने । दूसरा तो ठीक... मैं इन जीवों को दुःख देने में निमित्त बनते भी अटक नहीं सकता । कब इस पाप से मैं विराम (विरति) प्राप्त करूंगा? यह विचार ही सम्यग्दृष्टि को दुःखी बनाता हैं ।
'दुःखितेषु दयात्यन्तं ।' ऐसा जो अपुनर्बंधक का लक्षण हैं, इससे यह दुःख अधिक समझें ।
दुःखी के दुःख दूर करने की वृत्ति अनुकंपा हैं । उसके दो प्रकार : द्रव्य और भाव अनुकंपा ।
द्रव्य से भी दूसरों को दुःखी करने की इसलिए मना हैं कि द्रव्य से दुःख प्राप्त होते वह जीव भाव से भी दुःखी बनता हैं ।
* कोई भी पदार्थ नाम स्थापना आदि के बिना नहीं पकड़ सकते । इसके बिना व्यवहार चलेगा ही नहीं ।
आप को रोटी की जरूरत हो तो रोटी शब्द का उच्चारण करना पड़ेगा । उसके बाद आपको 'भाव-रोटी' मिलेगी । भाव भगवान को पकड़ने हो तो नाम से प्रारंभ करना पड़ेगा । नाम स्थापना को बिना पकड़े भाव भगवान नहीं पकड़ सकेंगे। नाम-स्थापना पर जिसे प्रेम नहीं हैं उसे भाव भगवान पर कैसे प्रेम होगा ? अभी भाव भगवान नहीं मिले वह हमारी कसौटी हैं : मेरा भक्त मेरे नाम और स्थापना को कितना प्रेम करता हैं ? वह तो देखने दो । ..
__ जितने अंशमें नाम-स्थापना पर प्रेम होगा, उतने अंशमें भाव भगवान मिलेंगे।
* लोकमें सारभूत क्या हैं ? ऐसे सवाल के जवाबमें भगवानने चारित्र को लोकमें सारभूत कहा हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४0000000000000000000000 २३५)