SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'पुरिसा जइ दुक्खवारणं, जइ अ विमग्गह सुक्खकारणं । अजिअं संति च भावओ, अभयकरे सरणं पवज्जहा ॥ ' हे पुरुषो ! यदि आप दुःख का निवारण और सुख का कारण इच्छते हो तो अभय को देनेवाले अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवान की शरण स्वीकारो । अजित - शान्तिनाथ भगवान भले न हो, पर उनके वचन ( आगम) तो हैं न ? इसलिए ही अंतमें कहा : 'जइ इच्छह परमपयं, अंहवा कित्ति सुवित्थडं भुवणे । ता तेलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ॥' यदि आप परमपद इच्छते हो, शायद परमपद का लक्ष न हो तो कीर्ति की तो इच्छा हैं न ? उस इच्छा को भी पूरी करनी हो तो जिनवचनमें आप आदर करो । यह जिनागम ही तीन लोक का उद्धार करनेवाला हैं । भगवान के आगम पर आदर हो तो चारित्र धर्म आदिमें कहीं अतिचार हम क्या लगने देंगे ? आपके कपड़े आप धोते हो, दूसरा नहीं । लेकिन भगवान तो इतने दयालु हैं कि आपकी संपूर्ण आत्मा को साफ करने के लिए तैयार हैं । कपड़े को साफ होना हो तो जहाँ तक साफ नहीं होता वहाँ तक साबुन-पानी को वह छोड़ नहीं सकता । आत्मा को साफ होना हो तो भगवान के चारित्र धर्म को छोड़ नहीं सकती । चारित्रधर्म में भगवानने प्रकर्ष साधा हुआ हैं । यथाख्यात चारित्र यह चारित्रधर्म की पराकाष्ठा हैं । चारित्रधर्म की पराकाष्ठा भी भगवानने प्रवर्तक ज्ञान द्वारा प्राप्त की हैं । भगवान का ज्ञान प्रवर्तक होता हैं, प्रदर्शक नहीं । प्रवर्तक ज्ञान भी भगवान को अपुनर्बंधक अवस्था से मिलता रहता हैं । अपुनर्बंधक अवस्था तथाभव्यता के परिपाक से मिलती हैं । हमारे पास अब एक वस्तु रही हैं : तथाभव्यता का परिपाक करना । पंचसूत्रकार कहते हैं : तथाभव्यता के परिपाक के लिए शरणागति, दुष्कृत - गर्दा और सुकृत- अनुमोदना - इन तीन को स्वीकारो । २३२ कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy