SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि.सं. २०५०, मद्रास ३१-१०-२०००, मंगलवार कार्तिक शुक्ला - ४ * इस विषमकालमें यह ग्रंथ (ललित विस्तरा) नहीं मिला होता तो वीतराग प्रभु की करुणा शायद जल्दी समझ नहीं सकते । आज भी देखो। हमारे संघमें भगवान वीतराग रूपमें जितने प्रसिद्ध हैं, उतने करुणाशील के रूपमें प्रसिद्ध नहीं हैं । हम पुरुषार्थ करें तो भगवान मिलते हैं यह बराबर परंतु हमारे पुरुषार्थ को भी प्रेरणा देनेवाले भगवान ही हैं, यह समझना पड़ेगा। अनंत जन्मों का पुण्य इकट्ठा हो तब भगवान की करुणा समझमें आती हैं, इतना नक्की मानें । प्रतिमा के दर्शन करते साक्षात् भगवान के दर्शन कर रहा हूं, ऐसी बुद्धि अगणित पुण्य के उदय के बिना नहीं होती । इस लिए ही रोज दर्शन करनेवाले हमने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया हैं या नहीं ? यह बड़ा सवाल हैं । सम्यग्दर्शन की निशानी क्या ? हमेशा हम देहभावमें रहते हैं या आत्म-भावमें ? इस प्रश्न के जवाब से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का ख्याल आयेगा । (कहे कलापूर्णसूरि - ४605666566666666 २१९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy