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________________ पू. देवचंद्रजी भगवान की शरणागति स्वीकारने के लिए यहाँ पू. हरिभद्रसूरिजी कहते हैं : भवितव्यमाज्ञा - प्रधानेन । भगवान को सामने रखकर आज्ञाप्रधान बनो । प्रणिधान को स्वीकारो । प्रणिधान के बिना सब एक संख्या बिना के शून्य जैसा हैं । साधु की सेवा से धर्म- शरीर की पुष्टि करो । साधु-सेवा से ही धर्ममें वृद्धि होगी । उसके बाद हितशिक्षा देते पू. हरिभद्रसूरिजी कहते हैं : हो सके तो शासन की प्रभावना करें । वह न हो सके तो शासन की अपभ्राजना हो ऐसा तो कभी मत करना : रक्षणीयं प्रवचनमालिन्यम् । शासन की अपभ्राजना से आज्ञाभंग, मिथ्यात्व, अनवस्था और ये चारों दोष लगेंगे, ऐसा छेदसूत्र पढने से समझमें 'पर - कृत पूजा रे, जे इच्छे नहि रे ।' 1 विराधना आयेगा । विधि के आग्रही ही ऐसा कर सकते हैं । इस लिए सर्वत्र विधिपूर्वक ही प्रवृत्ति करें । थोड़ा भी हो, पर विधिपूर्वक होगा तो अनंतगुना फल मिलेगा । विधि, सूत्र के बिना जान नहीं सकते । 28 - २१८ WW तत्त्वदृष्टि - व्यवहारदृष्टि तत्त्वदृष्टि ज्ञानस्वरूप हैं, जिसमें वस्तु का सत्स्वरूप प्रकाशित होता हैं । व्यवहारदृष्टि क्रिया स्वरूप हैं । उन क्रियाओं का मतलब हैं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आचरण । इसलिए तत्त्व का लक्ष करना और शक्य का प्रारंभ करना । ० कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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