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सिद्धांत की वासना से ही यह कषायों की वासना हटा सकते हैं । कैसे शब्दों का प्रयोग किया हैं, यहाँ हरिभद्रसूरिजीने ? स्वपर दर्शन का कितना गहन अभ्यास किया होगा उन्होंने ? सचमुच हरिभद्रसूरिजी आगम- पुरुष थे । जीवंत आगम थे । अनुभवी पुरुष होने पर भी कहीं व्यवहार का उल्लंघन उन्होंने नहीं किया हैं । पू. हरिभद्रसूरिजी कहते हैं : संसार की आग बुझाओ, पर हम तो आग ज्यादा तीव्र जला रहे हैं ।
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'आग लग रही हैं ।' ऐसी प्रतीति गुरु के बिना होती नहीं हैं । लेकिन गुरु का माने कौन ? जमाना तो ऐसा आया हैं कि गुरु का शिष्य नहीं, परंतु शिष्य का गुरु को मानना पड़ता हैं । ऐसे वातावरणमें कल्याण कैसे होगा ?
पू. हरिभद्रसूरिजीने संसार की आसक्ति छोड़ने, अनित्यता को भावित करने यहाँ 'मुण्डमालालुका' दृष्टांत दिया हैं । मतलब यह हैं कि आदमी के पास माला और घड़े का खप्पर दोनों होते हैं । शाम होते ही माला मुरझा जाये तो दुःख नहीं होता । क्योंकि आदमी जानता हैं : फूलों का मुरझा जाना यह स्वभाव हैं । पर घड़े का खप्पर टूट जाये तो दुःख होगा । क्योंकि उसमें नित्यता की बुद्धि हैं । माला की तरह प्रत्येक पदार्थोंमें अनित्यता की बुद्धि होनी चाहिए । इस प्रकार के चिंतन से अवास्तविक अपेक्षा तुरंत ही छूट जायेगी । * ५० शून्य हैं, मूल्य कितना ? कुछ भी नहीं । पर आगे एक ( १ ) लगा दो तो ? सभी शून्य महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं ।
हमारे सभी जन्म एक संख्या बिना के शून्य जैसे व्यर्थ गये हैं । समकित के बिना सब शून्य हैं ।
ऐसा मुझे नित्य लगा हैं । इसलिए ही मैंने भगवान को पकड़े हैं, भगवान के साधु और भगवान का धर्म पकड़ा हैं । इसके बिना सम्यग्दर्शन नहीं ही मिलेगा ऐसी मुझे हमेशा प्रतीति होती रही हैं और शास्त्र से ऐसी पुष्टि मिलती रही हैं । भगवान को हमारी कोई अपेक्षा नहीं हैं, भगवान स्वयं की पूजा हो ऐसा इच्छते ही नहीं, अपितु उनकी पूजा के बिना, इनकी शरण लिये बिना हमारा उद्धार नहीं ही होगा, यह नक्की हैं।
कहे कलापूर्णसूरि ४wwwww
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