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से मिलती हैं । आत्मा को तृप्ति चउविसत्थो आदि से मिलती हैं । शरीर का भोजन कभी भूलते नहीं । आत्मा का भोजन कभी याद नहीं आता । यह हमारी बड़ी करुणता हैं । बारातमें गये हो और दुल्हे को ही भूल जाओ ? यहाँ दुल्हा (आत्मा) ही भूल गये हैं।
प्रभु की मुद्रा देखकर स्व-आत्मा याद आती हैं : ओह ! मेरा साध्य यह हैं । मेरा भविष्य हैं । मेरे विकास की पराकाष्ठा यह हैं । मुझे भगवान बनना हैं । एकबार ऐसी गहरी रुचि प्रकटने के बाद दूसरा सब अपने आप हो जायेगा ।
(२१) धम्मदेसयाणं :
अविनीत पुत्रको पिता की संपत्ति नहीं मिलती। हम अविनीत हो तो भगवान की संपत्ति कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? विनीत बनते ही भगवान की तरफ से एक के बाद एक भेट मिलने लगती हैं । अभय, चक्षु, मार्ग, शरण, बोधि इत्यादि सब कुछ । सचमुच तो भगवान देने के लिए तैयार ही हैं। भगवान मात्र हमारी योग्यता की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जिस घरमें (संसारमें) मैं हूं वह जल रहा हैं । ऐसा जानने के बाद सोते हुए आदमी के बिना कोई वहाँ रह नहीं सकता । हम सोते हुए हैं या जागृत हैं ?
संसार की इस आग को सिद्धांत-वासना के बलवाली धर्ममेघ की वृष्टि ही बुझा सकती हैं । सिद्धांत का रस जगे तो संसार का रस घटता ही हैं ।
अभी संसार (विषय-कषाय) की आग संपूर्ण तो बुझा सकेंगे नहीं । क्योंकि क्षायिक मिल सकेगा नहीं । अभी तो क्षयोपशमभाव से चलाना पडेगा ।
कषायों को घटाते रहो ।
उपमितिमें क्रोध को अग्नि, मान को पर्वत, माया को नागिन (याद रखें : नाग से भी नागिन ज्यादा खतरनाक हैं । ऐसा आदमी बात-बातमें माया करता हैं । वह कभी ढोंग नहीं छोड़ता । हमें पढानेवाले प्रज्ञाचक्षु आनंदजी पंडितजी कहते थे : ढोंग, धतिंग और पाखंड) और लोभ को सागर कहा हैं । (२१६ Woooooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - ४)