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पूज्य हेमचंद्रसागरसूरिजी : झगड़ा शमाना आता हैं ।
पूज्यश्री : कितनेक ऐसे भी होते हैं कि झगड़ा न भी शमा सकुँ । उस समय मैं मेरी अशक्ति और मेरी खामी देखता हूं ! उस समय मैं याद करता हूं : 'सव्वे जीवा कम्मवस'
___ 'येन जनेन यथा भवितव्यम् तद् भवता दुर्वारं रे'
जिस आदमी की जैसी भवितव्यता हो उसे भगवान रोक नहीं सके, समझा नहीं सके, वहाँ हम कौन ?
* भगवान के प्रति बहुमान की मात्रा से ही हमारा संसार दीर्घ हैं या अल्प हैं, यह जान सकते हैं।
जिस ज्ञान को प्राप्त करने वर्षों तक मेहनत करते हैं वह भक्ति से सहजमें मिल जाता हैं, ऐसा मेरा अनुभव हैं । सूत्र सामने आते ही इसका रहस्य समझमें आ जाता हैं, इसमें मैं प्रभु की कृपा देखता हूं। जब बहुत टेन्शनमें होऊं (औदयिक भाव तो हैं न?) तब ऐसे सूत्र, श्लोक इत्यादि बहुत ही उपयोगी बनते हैं । ___। हम सूत्र, श्लोक आदि पढे सही, परंतु उपयोग कितना करते हैं ? हमारी यही पूंजी हैं । कोई व्यापारी यदि पूंजी का ध्यान न रखे तो उसका ‘टापरा' (छप्पर) उड जाये ।
मृत्यु के समय यही काममें आयेगा । कोई पोटले, पुस्तक या शिष्य इत्यादि काम नहीं आयेंगे ।
नक्की कर लो : इस जन्ममें सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही हैं।
पूज्य हेमचंद्रसागरसूरिजी : इसके लिए कोर्स बता दीजिए। एकाध वर्षमें प्राप्त कर लेंगे ।
पूज्यश्री : यह तो मेरे हाथमें कहाँ हैं ? एक यथाप्रवृत्तिकरण का ही कोर्स इतना लंबा हैं कि शायद अनंता जन्म भी निकल जाये । चरम यथाप्रवृत्तकरण आने के बाद ही सम्यग्दर्शन की पूर्वभूमिका का निर्माण होता हैं ।
जहाँ तक हृदय की धरती जोतकर तैयार न करें वहाँ तक बीज का बोना कैसे हो सकता हैं ?
आज सुबहमें ही मैंने बात की थी : कोठीमें रहा हुआ बीज नहीं ऊगता उसी तरह भगवान के बिना आत्मा परमात्मा नहीं बनती। (कहे कलापूर्णसूरि - ४00omomooooooooomww00 २०७)