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________________ इन्द्रभूति को प्रथम तो हेतु-बहुमान ही हुआ था । फिर आत्मसंपत्ति जानने पर सत्य बहुमान उत्पन्न हुआ था ।। ___ हेतु सत्य बहुमान थी रे, जिन सेव्या शिवराज ।' - पू. देवचंद्रजी जितना बहुमान स्वयं और स्वयं की शक्तिओं पर हैं, उतना बहुमान भगवान पर कहाँ हैं ? अहं को इतना बड़ा बना दिया हैं कि हमें सब कुछ छोटा लगता हैं । किसी को नमन करने का मन नहीं होता । मैं और किसी को नमन करूं ? हद हो गई ! ऐसा विचार बाहुबली जैसे को भी आ गया था । चरमशरीरी को भी ऐसा विचार रुकावट देता हो तो हम किस वाड़ी के मूले? उन्होंने तो अहं को दूर कर दिया । हम अहं को पुष्ट कर रहे संज्वलन अहं १५ दिन से ज्यादा नहीं टिकता । जीवनभर अहं रहता हो तो वह अनंतानुबंधी नहीं कहलाता ? भगवान के आगे भी अहं न जाये तो दूसरे कहां जायेगा ? * आज नया वर्ष हैं । यहाँ आये तबसे (चैत्र महिने से) लगभग वाचना चालू रही तबीयत के कारण शायद किसी दिन बंध रही हो तो अलग बात हैं । मैं तो रोज गिना करता हूं : कितना समय गया ? अब कितने रहे ? मैंने १९८०में जन्म लिया । शायद मैं १०० साल भी रहूं तो भी २४ वर्ष से ज्यादा न रहूं न ? .. पूज्य हेमचंद्रसागरसूरिजी : २४ तो पक्के न ? आप तो वचनसिद्ध न ? __ पूज्यश्री : वचनसिद्ध शायद होऊं तो भी दूसरों के लिए, मेरे लिए नहीं । इस पर से प्रेरणा लेनी हैं । मरण की विचारणा भी कितने सारे अनर्थों से बचा देती हैं ? मुझे याद नहीं हैं : मैंने बचपनमें कोई झगड़ा किया हो । न झगड़ा करना आता हैं, न कराना आता हैं । (२०६80wwwwwwwwwwwwwwwws कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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