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कोई भी वस्तु दूसरे को काममें आती हो तो ही उसका मूल्य हैं । उपयोगमें न आये तो उसका कुछ भी मूल्य ही नहीं हैं । दूसरे को उपयोगी बनोगे तो ही आपके पास जो गुणशक्ति इत्यादि होंगे वे बढेंगे ।
गुरु शिष्य को ज्ञान देते हैं तो गुरु का ज्ञान घटेगा या बढेगा ? * पदार्थमें रस हैं, लेकिन जहाँ तक जीभ के साथ उसका संस्पर्श न हो वहाँ तक रस का अनुभव कर नहीं सकते । भगवान करुणासागर हैं, अनंत गुणों के भंडार हैं, परंतु हृदय से जहाँ तक भगवत्ता का संस्पर्श नहीं होता वहाँ तक उस भगवत्ता का अनुभव नहीं होता ।
भगवान के १४ हजार साधु, ३६ हजार साध्वीजी, १ लाख ५९ हजार श्रावक, ३ लाख १८ हजार श्राविकाओंने भगवान की भगवत्ता का अनुभव किया था ।
भगवत्ता की अनुभूति के बिना हम सच्चे अर्थमें संघ के सभ्य बन नहीं सकते ।
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'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक के करीबन ८७५ पेज पढे हैं, किंतु... इसमें से बहुत जानने मिलता हैं, जाने हुए पर श्रद्धा बढ़ती हैं, भक्ति की उमंग जागृत होती हैं । थोड़ा-थोड़ा पढकर उस पर विचार कर, बराबर समझकर, जीवनमें लाने का प्रयत्न करता हूं । आपश्री का खूब - खूब उपकार ।
रायचंद, बेंगलोर
कहे कलापूर्णसूरि ४
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